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________________ जीवन और कला (श्रमण) १२५ ४३६ जो लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशसा, और मानअपमान आदि हर स्थिति मे समभाव से रहनेवाला होता है, वही वस्तुत साधु है। ४४० मुनि शुक्ल-ध्यान मे लीन रहे, सासारिक सुखो की कामना न करे, सदा अकिञ्चन वृत्ति से रहे तथा जीवन भर काया का ममत्त्व त्याग कर विचरण करता रहे । ४४१ साधु इम लोक और परलोक मे अनासक्त भाव से रहे, वसुले से काटने अथवा चन्दन लगाने वाले पर तथा भोजन मिलने या न मिलने पर, हर स्थिति मे समभाव पूर्वक रहे । ४४२ मुनि ममत्त्व रहित, अहकार रहित, निर्लेप, गौरव का परित्याग करनेवाला, त्रस और स्थावर सभी जीवो के प्रति समभाव रखनेवाला होता है। ४४३ जैसे प्रज्वलित अग्नि-शिखा का पान करना अति दुष्कर है, वैसे ही यौवन मे श्रमण धर्म का पालन करना अति कठिन है । ४४४ जो अपनी मन स्थिति को पूर्णतया परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ-साधक है। ४४५ जो पुरुप वस्त्र, गन्ध, अलकार-आभूपण, स्त्रियां और पलगो का परवश होने के कारण सेवन नहीं करता, वह वास्तव मे त्यागी नही कहलाता। जो पुरुप प्राप्त हुए कान्त और प्रिय भोगो को स्वेच्छा से उदासीनतापूर्वक त्याग देता है, वह निश्चय ही त्यागी कहलाता है।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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