SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन और कला (विनय) ११३ ३९८ विनय-सम्पन्न शिष्य गुरु द्वारा विना प्रेरणा दिये ही कार्य करने मे प्रवृत्त होता है । वह अच्छे प्रेरक गुरु की प्रेरणा पा कर शीघ्र ही उन के उपदेशानुसार सभी कार्य भली-भांति सम्पन्न कर लेता है। ३६६ धर्म का मूल विनय-आचार है । ४०० जहाँ कही भी अपने धर्माचार्य के देखे वही उन्हे वन्दन नमस्कार करना चाहिए। ४०१ गुरुजनो के शिक्षा देने पर कुपित-क्षुब्ध नही होना चाहिए। , ४०२ प्रज्ञा-शील शिष्य गुरुजनो की जिन शिक्षाओ को हितकर मानता है, दुर्वृद्धि-अविनीत शिष्य को वे ही शिक्षाएं बुरी लगती हैं। ४०३ जो चण्ड है, अज्ञ है, स्तब्ध है, अप्रियवादी है, मायावी है और शठ है, वह अविनीतात्मा ससार के प्रवाह मे उसी प्रकार प्रवाहित होता रहता है, जैसे नदी के प्रवाह मे पडा हुआ काष्ठ ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy