SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और दर्शन (आत्मा) ६७ ३४७ जिस प्रकार यह आत्मा राग-द्वेष द्वारा कर्मों का उपार्जन करती है और समय पर उन कर्मों का विपाक-फल भोगती है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर सिद्धलोक मे सिद्धपद को प्राप्त करती है। ३४८ जो आत्मा पापकर्म का उपार्जन करती है वे नरक और तिर्यंच योनि मे जन्म लेती है, जो पुण्य का उपार्जन करती है, वे मनुष्य तथा देव गति मे जाती है। और जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति के जीवो की तथा स-जीवो की रक्षा कर कर्म दलिको को नष्ट कर देती हैं, वे आत्मा सिद्धालय मे सिद्धावस्था को प्राप्त होती है । ऐसा ज्ञानियो का कथन है। ३४४ शब्द, रूप, गन्ध आदि काम-भोग (जड-पदार्थ) और है, मैं (आत्मा) और हूँ। ३५० पुरुप ! तू स्वय ही अपना मित्र है। फिर वाहर मे क्यो किसी मित्र की खोज कर रहा है ? आत्मा के वर्णन मे समस्त शब्द समाप्त हो जाते हैं । वहाँ तर्क का भी स्थान नही है और न बुद्धि ही उसे ठीक तरह से ग्रहण करने मे समर्थ होती है। ३५२ आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुन्थुआ दोनो मे एक सदृश आत्मा है। ३५३ स्वरूप दृष्टि से सभी आत्माएँ एक (समान) है । ३५४ मैं (आत्मा) अविनाशी हूँ, अवस्थित हूँ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy