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________________ धर्म और दर्शन ( वीतराग-भाव ) २८६ पावन दृष्टिवाला साधक पाप कर्म से विलग रहता है । ७६ २८७ वीतराग सत्य द्रष्टा के लिए कोई उपाधि होती है या नही ? नही 1 होती है । २८८ जिस साधक ने अभिलाषा - आसक्ति को नष्ट कर दिया है, वह मनुष्यो के लिए मार्ग-दर्शक चक्षु रूप है । २८६ साधक सुखाभिलाषी बन काम - भोगो की कामना न करे, और प्राप्य भोगो के प्रति भी अप्राप्य निस्पृह भाव रखे । २० श्रोत्र का विपय शब्द है । जो शब्द राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेप का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दो मे समदृष्टि रखता है वही वीत - राग होता है । २६१ चक्षु का विपय रूप है । जो रूप राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपो मे समान रहता है वही वीतराग होता है । २२ घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है । जो गन्ध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनो मे समदृष्टि रखता है वही वीतराग होता है । २६३ रसनेन्द्रिय का विषय रस है । जो रस राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ - अमनोज्ञ रसो मे समदृष्टि रखता है । वही वीतराग होता है ।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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