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________________ है। शेषके पांच द्रव्य भी जो जैनधर्ममें स्वीकृत हैं बौद्धधर्ममें नहीं मिलते हैं। जैनशास्त्रोंमें 'श्रावक' शब्दके भाव एक जैनी गृहस्थके हैं, परन्तु बौद्धोंके निकट इसके भाव एक बौद्ध भिक्षुके हैं। इसीतरह बौद्धोंका रत्नत्रय जैन 'रत्नत्रय'के नितान्त विपरीत है। ऐसे ही खास २ भेदोंको डॉ. साहबने अपनी प्रस्तावनामें अच्छी तरह दर्शा दिया है। अंग्रेजी विज्ञ पाठक उसको पढ़कर विशेष लाभ उठा सकेंगे, इसके लिये हम डॉ. सा० का पुनः आभार स्वीकार करते हैं तथापि उन सब आचार्यों और लेखकोंके भी हम आभारी है, जिनके ग्रन्थोंसे हमने यह पुस्तक लिखनेमें सहायता ली है। ___ अन्तमें हम अपने प्रियमित्र सेठ मूलचन्द किसनदासजी कापडियाको धन्यवाद दिये विना भी नहीं रह सक्ते, जिनकी कपासे यह पुस्तक प्रकाशमें आरही है और "दिगम्बर जैन" के ग्राहकोंको भेंट स्वरूप भी मिल रही है व इस तरहपर इसका जल्दी ही बहुप्रचार होरहा है। हमें विश्वास है कि विद्वजन इसे विशेष उपयोगी पायेंगे और यदि कोई त्रुटि इसमें देखेंगे तो उसको सूचित कर अनुग्रहीत बनायेंगे । इत्यलम् । जसवन्तनगर (इटावा) माघ शुक्ला पूर्णिमा, बीर नि० स०२४५.. विनीत__ कामताप्रसाद जैन। -
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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