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________________ और म० बुद्ध ] [ १५१ सात दिनतक धूलिकी और फिर सात दिनतक धूमकी वर्षा होतीं है । इसके बाद पृथिवीका विषमपना सब नष्ट हो जाता है और चित्रा पृथ्वी निकल आती है । यही अवसर्पिणीके अन्तिम कालका अन्त हो जाता है । और उत्सर्पिणीका प्रथम अति दुःखमा काल चलता है, जिसमें प्रजाकी वृद्धि होने लगती है । इसके प्रारम्भमें क्षीर जातिके मेघ सात सात दिनतक रातदिन बरावर जल और दूधकी वर्षा करते है जिससे पृथ्वीका रूखापन नष्ट हो जाता है । इसीसे यह पृथ्वी अनुक्रमसे वर्णादि गुणोंको प्राप्त होती है। इसके बाद अमृत जातिके मेघ सात दिनतक अमृतकी वर्षा करते है जिससे औषधियां, वृक्ष, पौधे और घास आदि पहले अविसर्पिणीके समान निरंतर होने लगते है । तदनंतर रसादिक जातिके बादल रसकी वर्षा करते है जिससे सब चीजोंमें रस उत्पन्न होता है । उत्सर्पिणी कालमें सबसे पहले जो मनुष्य चिलोंमें घुस जाते है वे निकलकर उस रसके संयोगसे जीवित रहने लगते है । ज्यो ज्यो काल वीतता जाता है त्यो २ शरीरकी ऊंचाई, आयु आदि जिन २ चीजोंकी पहले अविसर्पिणी में कमी होती जाती थी उन सबकी वृद्धि होती है । उपरान्त दूसरे कालमें सोलह कुलकर होते है । इनके द्वारा क्रमकर धान्यादि और लज्जा, मैत्री आदि गुणोंकी वृद्धि होती है । लोग अग्निमें पकाकर भोजन करते हैं । दूसरेके बाद तीसरे कालमें भी लोगोंके शरीर आदि वृद्धिको प्राप्त होते है । इस समय २४ तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं । और प्रथम तीर्थंकर द्वारा कर्मक्षेत्रकी सृष्टि होती है । फिर चौथे कालमें शरीर, आयु आदिमें और वृद्धि होती है और उसके थोड़े ही वर्ष बाद वहां जघन्य
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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