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________________ १३६] [ भगवान महावीरपापस्य च फलम्। तत् क्रियोपात्तं तु कर्मजन्मान्तरेफलिष्यतीति नात्र नियतकार्यकारेण व्यभिचारमा" भावार्थ-पापी मनुष्यकी अभिवृद्धि और अर्हतपूजारत पुण्यात्माकी दयाननक स्थिति उन दोनोके पूर्वसंचित कर्मोका फल समझना चाहिये। उनके इस जन्मके पाप और पुण्य दूसरे भवमे अपना फल दिखावेंगे, इसलिये कर्म नियम किसी तरह बाधित नहीं है। ___ सचमुच भगवान महावीर सर्वज्ञ थे-साक्षात् परमात्मा थेइसलिये उनका उपदेश वैज्ञानिक और व्यवस्थित होना ही चाहिये। इस हीके अनुरूपमे जैनशास्त्रों जैसे-गोम्मटसार, पञ्चास्तिकायसार आदिमें कर्मसिद्धान्तका पूर्ण और वैज्ञानिक विवेचन ओतप्रोत भरा हुआ है । उसका सामान्य दिग्दर्शन कराना भी यहां मुश्किल है। तो भी यह स्पष्ट है कि कर्मसिद्धांतके अस्तित्व और उसकी क्रियासे इन्कार नहीं किया जासक्ता । कार्य-कारण सिद्धातका प्राकृतिक नियम है, इस विषयमें इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि आत्मा स्वयं अपने स्वभावमें ही क्रिया करता है और वह अपने आप अपने भावका कारण है । वह कर्मकी विविध अवस्थाओका मूल कारण नहीं है, इसी तरह कर्म भी स्वयं अपनी पर्यायोका कारण है । वह स्वयं अपने आपमें क्रियाशील है। श्री नेमिचन्द्राचार्यजी उनके पारस्परिक सम्बन्धको स्पष्ट प्रगट कर देते है - पुग्गलकम्मादीण कत्ता ववहारदो दुणिञ्चयदो। चेदणकम्माणादा मुद्धणया सुद्धभावाणम् ॥ ८॥ द्रव्यसंग्रह ॥ भावार्थ-व्यवहारनयकी अपेक्षा आत्मा कर्मकी पर्यायोंका कारण है; अशुद्ध निश्चयनयसे आत्मा स्वयं अपने उपयोगमयी
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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