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________________ (८) युवावस्था और गहस्थ जीवन । 'निशि का दीपक चन्द्रमा, दिन का दीपक भान | कुलका दीपक पुत्र है, तिहुजग दीपक ज्ञान ।' -द्यानत दिन वीतते देर नहीं लगती। दोइज का चन्द्रमा आँखमिचौनी खेलता हुआ चमकता है, परन्तु वही प्रति दिन एक-एक कला बढ़ता हुआ पर्णिमा को सबका मन मोहता है। जैनियों के समस्त तीर्थकर संसार मे चलते-फिरते मनुष्य थे। वह कोई देव अथवा मनुष्योपरि व्यक्ति नहीं थे। यदि वह मनुष्य न होते तो नरलोक के लिये उनका महत्व कुछ न रहता । देव भी अमरपुरी का सुख-वैभव विसार कर उत्तम मनुष्य कुल पाने के लिये तरसते हैं। केवल इसलिये ही कि मनुष्य जन्म में ही संसारी जीव के लिये यह सम्भव है कि वह 'त्रिलोक-दीपक-जान' को प्राप्त करके त्रिलोक्य पूज्य शाश्वत परमपद को प्राप्त करे। महानता कौन नहीं चाहता ? महत्वाकांक्षा किसे नहीं है ? किन्तु उसकी प्रौढ़ता और सुलभता नर जन्ममें ही है। नरदेह में ही वह विवेकभाव और त्यागशक्ति व्यक्त की जा सकती है, जो नर को नारायण बना देती है। आधनिक तत्ववेत्ता कालाइल (Carlyle ) ने लिखा है कि 'मनुष्य देवी जन्म धारक है। वह संयोगों और आवश्यकताओं का गुलाम नहीं है. बल्कि उनका विनयी जेता है। देखो, वह अपनी स्वाधीनता को और अपने (आत्मिक) व्यक्तित्व को किस रीति से दुनिया में प्रकट कर सकता है ? युवक महावीर ने इस सत्य को अपने जीवन में मूर्तिमान बनाने का शुभ-संकल्प किया था। एक जैनी को यह दृढ़
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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