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________________ ( ५६ ) ही संध्याकालीन श्री शोभा से यक्त वना रही थी। उसके सुन्दर और उत्तंग राजमहल आकाश से बाते करते थे। भ० महावीर के पितृगह का वर्णन यही बताता है। उसके विषय मे श्री गुणभद्राचार्य जी ने जो उद्गार प्रगट किये है, वह हिन्दी पद्य मे इस प्रकार हैं --२ "सप्तखनो प्रासाद उत्तङ्ग, श्वेत कनकमय तसु असु अङ्ग । ऊपर मंदिर शोभै सार, नाम 'सुनंदावत' विचार ॥" राजमहल नयनाभिराम और विलासपूर्ण तो था ही, किन्तु उसके शीर्षभाग मे जिनेन्द्र का चैत्यालय इस बात का प्रमाण था कि वहा के निवासी और खासकर भ० महावीर के पितगण धर्मतत्व को भले न थे। वे धर्म को ही आगे रखकर अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्धि करते थे। इस नगर मे ज्ञात क्षत्रिय प्रभ-शक्ति-यक्त थे। वे महान् और लोकमान्य थे । वे प्रायः सव ही तेईसवें तीर्थङ्कर भ० पार्श्वनाथ के धर्म-शासन के उपासक थे। उपरान्त जब भ० १ कवि श्राशगकृत, 'महावीर चरित्र' प० २३६-२४० २. कवि खुशाल चन्द कृत 'उत्तर पुराण' का हिन्दी पद्यानुवाद देखो। बौद्धग्रन्थ 'महावग्ग' में लिखा है कि एक बार बुद्ध कोटिगाम में ठहरे थे, जहा नाथ वंश के लोग रहते थे । बुद्ध जिस भवन में ठहरे थे उसका नाम जिन्जकावसथ' (Nathik-Brick-Hall) था। बहां से वह वैशाली गये ।' सर रमेशचन्द्र दत्त इस पर अपने 'प्राचीन भारतवर्ष की सपता के इतिहास' में लिखते हैं कि "यह कोटिगाम वही है जो कि जैनियों का कुण्डग्राम है और बौद्ध ग्रंथों में जिन नात क्षत्रियों का वर्णन है, वे ज्ञातिक क्षत्रिय हैं।" भालकल जैनी राजगृह के पास प्राचीन नालन्दा के एक भाग को गलती से कुएडल पुर मानते हैं ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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