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________________ ( ४६ ) की अहिंसा का क्षीण प्रभाव उन्हें नियमित जीवो की हिंसा करने की सीमित पाप-मर्यादा में ले आया था, परन्तु इन्द्रियलिप्सा पर विजय पाना सुगम नहीं है। दूसरी ओर ब्राह्मण-परम्परा वैदिक मान्यताओं की रक्षा के लिये उद्योगशील थी। उनमे भी दो धारायें चल रही थीं। 'प्रश्नोपनिषद' के अविष्टाता पिप्पलाद, 'मुण्डकोपनिषद' के रचयिता भारद्वाज, 'कठोपनिपट' के प्रचारक नचिकेतस् प्रभति ऋषियों ने वैदिक क्रियाकांड मे यद्यपि ऐसा सुधार किया था जो बानयन्त्र, अहिंसा और सैद्धान्तिक प्रौढ़ता का पोषक था, परन्तु पुरातन ब्राह्मण-परम्परा हिंसा-पूर्ण यज्ञ-याज आदि करने में हो मग्न थी ! वर्णाश्रम धर्म का मनमाना अर्थ करके ब्राह्मण ब्राह्मणेतर वर्णों पर घोर अत्याचार कर रहे थे। शूद्र और स्त्रियाँ तो मनुष्य ही नहीं समझे जाते थे। जैन एवं बौद्ध ग्रन्थो मे ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जिनमे जात्याभिमान के घातक परिणाम चित्रित हैं । "चित्तसभूत जातक" से स्पष्ट है कि चांडालो को रास्ता निकलना भी दुश्वार था । एक दफा ब्राह्मण और वैश्य स्त्रियों को दो चाडाल रास्ता जाते मिले । स्त्रियों ने इसे अपशकुन माना-अपनी आंखों को जल से धोकर शुद्ध किया और उन चांडालों को खूब पिटवा कर उनको दुर्गति को। जैन ग्रन्थों में अभयकुमार के पूर्वभव वर्णन में जाति मद की भयंकरता और साथ ही निस्सारता चित्रित की गई है। शूद्रों १. इमारा "भगधान पार्श्वनाय" पृए २८८-३०२ । २. हमारा 'भगवान् पार्वनाय' पृष्ठ ६५-७२
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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