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________________ ( ३५ ) तो उनकी दशा अधम औरशोचनीय होती है। समाज मनुष्यों से ही बना है। अच्छे-बुरे मनुष्यों की संख्या और तारतम्य के अनुसार ही समाज की स्थिति बदलती रहती है-उसकी आवश्यकतायें घटती-बढ़ती और नई-नई होती रहती है-मनुष्यों में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार नये नये विचार उत्पन्न होते रहते हैं । मनुष्य उन्हींके अनुकूल अपने सिद्धांत भी गढ़ लेते हैं । परन्तु वह उस हद तकही मान्य और स्थायी होते हैं जितने अंश में उनमे सत्य होता है । इस युग की आदि मे ऋषभदेव नामक प्रथम तीर्थङ्कर ने मनुष्यों को समाज शास्त्र, राजनीति और धर्मतत्व का यथार्थ पाठ पढ़ाया था; परन्तु उसी समय भ० महावीर के जोव मरीचिने अहङ्कार के वश में होकर मिथ्या मार्ग का भी उपदेश दिया था। मतभेद स्वाभाविक है, परन्तु उसमे हठ और पक्षपात का होना भयङ्कर है। लोक मे हठोले और पक्षपाती मिथ्यादृष्टियों की कभी भी कमी नहीं रही है। अतः कभी ऐसी दुरूह स्थिति उपस्थित होती है कि उसका सामञ्जस्य नहीं होता । वह एक ऐसी समस्या बनती है कि जिसका उत्तर नहीं मिलता। परिणामतः मनुष्य समाज मे अशान्ति और असन्तोष फैल जाता है-लोगोंको धर्म सिद्धान्तों मे विश्वास नहीं रहता और यदि कहीं रहता भी है तो अंधश्रद्धा के रूप में ! चहुँओरअविवेक का अंधकार छा जाता है । विवेक रूपी प्रकाशसे उसका संघर्ष होता है। समय की इस अवस्था के अनुकूल महान् आत्माएँ अवतरित होती हैं। वह समाज की गंभीर और विच्छिन्न स्थिति को सुधार देती हैं और समाज को सन्मार्ग पर ले आती हैं।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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