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________________ कैसे हो जाऊँग ?" साधु ने कहा-"भाई ! जब तू अपने को जीतेगा तो लोक को जीतने में तुझे क्या देर लगेगी। मेरे वचनों पर विश्वास ला । तू एक जन्म में अवश्य लोकपूज्य होगा। केवल यह नियम कर ले कि तू जान बूझकर किसी के प्राण न तेगा-शिकार नहीं खेलेगा और शुद्ध भोजन करेगा !" भीलभीलिनी ने साधु महाराज की यह सीख सिर-ऑखों पर ली। उन्होंने स्थूल रूप में अहिंसावत को ग्रहण करके उसका खुव पालन किया । अब उनका जीवन बदल गया । वे धर्म के प्रकाश में आ गये-समभावी बन गये। पहले जो जीव उनके पास आते हुये डरते थे, वही अब वेधड़क उनके पास चले आते थे और उन्हें प्यार करते थे। उनके हृदयों मे अमित दया थी। प्रेम था। भगवान महावीर की जीवात्मा ने आत्मोत्थान की साधना इस भील के भव से ही प्रारम्भ की थी। भीन के जन्म में भगवान महावीर की आत्मा ने जिस अहिंसा धर्म का वीज अपने हृदय में चोया था, वह कई जन्मों की जय-पराजयों के पश्चात् पूर्ण विकसित और फलित हुआ था। आयु के अंत मे भील का जीव उस नश्वर शरीर को छोड़ कर स्वर्ग में देव हुआ। उस ने दूसरों को सुखी बनाया, इस लिए स्वर्ग का सुख उसे मिला। किन्तु पूर्वसंस्कार के वश वह उस स्वर्गीय जीवन में भी भोगों के श्राधीन नहीं हुआ, बल्कि धर्माराधना में काल व्यतीत करता रहा। आयु के अन्त में वह जीव भारतवर्ष के आदि चक्रवर्ती भरत का पुत्र हुआ। मरीचि उस का नाम था । अपने बावा, पहले तीर्थंकर ऋषभदेव के साथ,
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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