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________________ (१४) सत्य का पूर्ण प्रकाश जो वहाँ है । यह परमोत्कृष्ट अात्मविशुद्वि असीम योग साधना का सुफल है । वह मानव जो सोलह-कारण यात्म-भावनाओं को मन वचन काय से सफल बना लेता है, वही एक तीर्थ कर के पाद मूल में बैठकर तीर्थकर कर्म प्रकृति का बंध करता है। सोलह-कारण आत्म-भावनायें आत्म विशुद्धि को पाने के लिये नियत-निमित्त हैं। उनमें भी दर्शन विशुद्वि मूल प्रेरक है । वह सोलहों में आदि इकाई है-मुकुटमणि है। आत्म श्रद्धा की विशुद्धि, आत्मा के स्वरूप का अनुभव दर्शन विशुद्धि है। मानव पहले आत्मा को पहिचाने और उसके स्वरूप का ज्ञान और अनुभव वढ़ावे, वह अपना अतरंग निर्मल होता पावेगा, यही दर्शन विशुद्धि है। शेष पन्द्रह कारण-भावनाओं मे भी यह अन्तर्निहित है-आत्म विशुद्धि निरन्तर बढ़ती ही रहती हैमहानता की कुजी यह दर्शन विशुद्वि है। शेष भावनायें इसकी अनुगामी हैं । वे यह हैं:(१) दर्शन विशद्धि-आत्मानुभव की उत्तरोत्तर वृद्धि ! (२) विनय सम्पन्नता-पूज्य पुरुषों के प्रति विनय का व्यव हार रखना और लोक व्यवहार में भी विनय पूर्वक वर्तना! (३) शीलवत ब्रह्मचर्य पालना। अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को मां-बहन समझता । (४) ज्ञानोपयोग-पठन पाठन में निरत रहना, जिससे
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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