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________________ ( ३३५ ) जैन सिद्धान्तों के समान थे । जैन कथाग्रन्थों से प्रगट है कि उस समय फणिक जाति के विदेशी भद्रजन भी भ० महावीरके संघमें सम्मिलित हुये थे२ । ई० पूर्व द्वितीय शती के एक मूर्ति, लेख से स्पष्ट है कि मथुरा में पार्थियन ( Parthian ). विदेशी जैनधर्म दीक्षित हुये थे और उन्होंने जिनमूर्तियाँ निर्माण की थी।३ निस्सन्देह भ० महावीर के धर्म का प्रभाव उनके समय से ही चहुँ ओर फैला था। संघमे विरोध का जन्म होने पर भी, जैनधर्म का प्रभाव अक्षुण्ण रहा था ।वीर निर्वाणाब्द ५४ सदृश प्राचीनकाल का एक शिलालेख इस बात की साक्षी है कि भारतकी कृतज्ञ जनता ने भगवान् के निर्वाण-काल की स्मृति मे एक अब्द भी प्रारम्भ - १. असहमतसंगम (Addenda,p. 3) & Encyclo- Bri: XII, p. 753. पिथागोरस ने जीव को अमर और पावागमन सिद्धान्त को माना था । मौनव्रत पालकर वह जैनों की तरह तप तपते थे। मास भोजन का उन्होंने निषेध किया और द्विदल भी नहीं खाते ये । जैनों में ही केवल द्विदल न खाने को विधान है। पैहोने स्याद्वाद सिद्धान्त का अनुसरण किया था, परन्तु वह उसको ठीक समझ न सका था। २. पाराधना कथा कोष, भा० २ प० २४३ व भ० पार्श्वनाथ, पृ० २०१-२०२। 'There were Parthians at Mathura who had immigrated during the rule of the Kshatrapas and who, although they were converted to the Jaina faith, upheld the traditions of their native country." H. Luders in the Bhandarkar Volume
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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