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________________ (११) करते है और भ० पार्श्व से पहले के बाइस तीर्थकरों के अस्तित्व में उनको शङ्का है। जैन शास्त्रों में उनका प्राय एक-सा चरित्रचित्रण देखकर वह और भी सशक होते है। किन्तु वे भूल जाते है कि 'सत्य' त्रिलोक और त्रिकाल मे एकसा-ही होता है । तीर्थकर सत्य-रूप है, सत्य के उपदेष्टा है और सत्य उनका प्रवचन है। तव उनके चरित्र मे अन्तर कहाँ से हो ? फिर भी थोड़ा बहुत अन्तर प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन चरित्र मे मिलता ही है। रहीबात चौवीस संख्या की, वह भी नितान्त प्राकृतिक है। दिनरात मे चौवीस घटे है और एक वर्ष मे चौवीस पक्ष होते है। प्रकृति के इस नियम को कोई पलट नहीं सकता। दिन रात मे चौवीससे कम ज्यादा घटे नहीं हो सकते-वर्ष मे कुल चौवीस ही पक्ष होंगे- उनकी संख्या घट बढ़ नहीं सकती। इसी प्रकार तीर्थकरों की संख्या भी चौवीस निश्चित है। यह काल और तीर्थदर कर्म प्रकृति का प्रभाव है । अविसर्पिणी कल्प का कालसूर्य अपने मध्यान्ह-यौवन पर चौथे काल में पहुंचता है। उस काल मे केवल चौवीस अवसर ही ऐसे उपस्थित होते है कि जिनमे काल चक्र के प्रभाव से नक्षत्रों की स्थिति सर्वोचपराकाष्ठा को प्राप्त होती है । इस परमोत्कृष्ट योगमें ही त्रिभुवनसिर-शेखर तीर्थंकर जन्म लेते हैं । यतो सामान्य केवलज्ञानी-सर्वज्ञसर्वदर्शी महापुरुप अनेक होते हैं, किन्तु धर्मतीर्थ प्रवर्तक महापुरुप चौवीस ही होते हैं यह मान्यता बहुप्राचीन है। मौर्यकाल से पहले की जिनमूर्तिया इसकी साक्षी हैं। अतएव तीर्थंकरों की चौचीस संख्या मे शङ्का करना व्यर्थ है।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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