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________________ ( ३०६ ) से बहुत ही पहले हो चके थे। किन्तु भ. महावीर के जीवन प्रसंग मे उनका जिक्र करना इसलिये आवश्यक है कि कुछ लोग भ० महावीर को ही जैनधर्मका आदि प्रणेता समझते हैं, परन्तु यह गलत है। भ० महावीर ने जैनधर्म का पुनः प्रचार और उद्धार किया अवश्य, किन्तु जैनधर्म की स्थापना का श्रेय ऋषभदेव को ही प्राप्त है। वह जैनधर्म के इस युगकालीन संस्थापक थे। किन्तु ऋषभदेवजी और महावीरजी के मत प्राय' एक समान थे-दोनों ने ही छेदोपस्थापना चारित्र का विधान जैनसपके लिये किया था ।२ अर्थात् प्रत्येक व्रताचार पथक-पृथक और विशद रूप में वताया था । सम्भव है उनकी प्रतिपादन शैली समय के अनुसार भिन्नरूप रही हो । यह तो स्पष्ट ही है कि तीर्थकर ऋपभदेव को गृह थावस्था में समाज व्यवस्था की रचना भी करनी पड़ी थी। उन्होंने स्वय गृहस्थाचार और दाम्पत्य जीवन का आदर्श लोक के सामने रक्खा था । भ० महावीर को इसकी आवश्यकता नहीं थी-उनके समयमें शीलधर्म की छीछालेदर हो रही थी--त्यागीजन भी भोग से अलिप्त न थे। इसलिये महावीर ने भोग को धता बताया--बाल ब्रह्मचारी रह कर योग का आदर्श उपस्थित किया ! चऋपभ और महावीर अपने-अपने समय के अनूठे महापुरुप थे। 1. 'यमदेवजी हुये जिनसे जैनमत प्रगट हुअा।'-भाषा मागवत की सुखसागर टीका, स्कंध ५१० ६ पृ. ३०४ । 'जैनधर्म का प्रचार ऋपमदेवजी ने किया था, इसकी पुष्टि के प्रमाणों का प्रभाव नहीं है।'-धी वरदकान्त मुस्योपाध्याय, एम. ए. विशेष के लिए "Jain Antiquary" ( Vol. 1 No 2 ) में हमारा “The Founder of Jainisim" नामक लेख देखो। २. मूलाचार ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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