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________________ स्वपर-आत्म-कल्याण वह करे, यही उसके लिये हितकारी है। इस जन्म मे भी और दूसरे जन्म मे भी । शरीर से भिन्न मानव देह को जाज्वल्यमान करनेवाला आत्मा महान् है। उसका प्रकाश जीवनपथ आलोकित करे, यह मानव जीवन का महान् लाभ है । इस लाभ से वह सुन्दर और समुज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है । मानव को दृढ श्रद्वा होती है कि उसकी अपनी वस्तु केवल आत्मा है, जो दर्शन और ज्ञान का पुञ्ज है। आत्म बल को विकसित करके मानत्र पूर्ण दृष्टा और बाता बने, तो वह पूर्ण सुखी होता और उसके साथ लोक भी । लोक मे आत्मा शाश्वत रहने वाली वस्तु है । शरीर और इन्द्रिय भोग क्षणिक हैं । शरीर भौतिक अशों का जो बना है । काल पाकर अंशों का समुदाय विघटित होता ही है। वाह्य ऐश्वर्य भौतिक दृष्टि के लिये मोहक अवश्य है, किन्तु अन्तदृष्टा जानता है कि सुख भौतिक-भोगों में नहीं है-इन्द्रियवासना मे फंसना शरीर का दास बनना है । अच्छा खाना-पीना, अच्छा पहनना-ओड़ना, अच्छा रहना-सहना, अच्छी सुखसम्पदा कुछ समय के लिये भले ही सुखाभास मे मनको मोह ले, किन्तु परिणाम उनका कटु ही होता है। रोग-शोक, आतंक भय, लट-खसोट, जन्म-मरण क्या शरीर के साथ नहीं लगे हैं ? फिर भौतिक जीवन की श्रेष्ठता मात्र को ही कैसे जीवन साफल्य माना जावे ? जो वस्तु अपनी नहीं है और न अपने स्वभाव के अनुकूल है, वह कैसे व्यक्ति के पास हमेशा रह सकती और उसे सुखी बना सकती है ? आत्मा ही स्व-वस्तु
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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