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________________ ( २६६ ) बौद्ध शास्त्रों के वाक्यों में बहुत सादृश्य मिलता है। दोनों ही मत ईश्वर कर्तृत्ववाद, जन्मतः वर्णगत ऊँच-नोच के मद (घमंड) पशु वलिदान और जीव हिंसा करने का निषेध करते है। परन्तु इस साम्य के साथ ही दोनों ही मतप्रवर्तकों की उपदेश शैली और तत्वनिरूपण भिन्न है। गौतमबुद्ध आत्मा, लोक और परलोक के विषय मे एक स्पष्ट मत नहीं देते-वह उन्हे 'अव्यक्तानि' कह कर टाल देते है। १ कहीं आत्मा और परलोक का अस्तित्व मान लेते है और कहीं पानी के फेन की तरह उसे क्षणभंगुर बताते है। यदि वह नयवाद का आश्रय लेकर यह कथन करते तो विरोध न भासता, क्योंकि ऋजसूत्रनय की अपेक्षा द्रव्य का निरूपण समयवर्ती है। द्रव्य मे परिवर्तन प्रति समय होता रहता है-यदि इस अपेक्षा से द्रव्य को क्षणवर्ती कहा जाय तो वेजा नहीं है। किन्तु गौतम बुद्ध ने इस प्रकार के नयवाद का निरूपण नहीं किया था। जब उन्हे बालतप से अरुचि हो गई-जो होना ही चाहिये थी, तब वह एक दूसरा ही सुम्वमार्ग ढूढने लगे। वोधिवृक्ष तले उन्होंने बैसा 'मध्यमार्ग लया-वह ब्राह्मणों के क्रियाकाण्ड और जैनों के कठोर संयमी जीवन के बीच एक प्रकार का राजीनामा था। साधुओं से उन्होंने कहा, 'दिगम्वर भेष धारण करने की जरूरत नहीं-शरीर से विल्कुल विरक्त न हो कर उसकी सार-सभाल रक्खो-उसे वस्त्रों से ढको, तैल मर्दन करो, अच्छा भोजन दो।' इस प्रकार के सरल साधु-जीवन द्वारा जब परम सुख मिलता शिष्य. श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्ध दर्शनम् ।।६।। शुद्धोदन सुतं बुद्ध परमात्मानमब्रवीत् ।' श्री अमितगति व भमत्रु०, पृ. २२ १ डॉयलॉग्स ऑर दी बुद्ध (S. B. B. Vol. II) पृ० २५४
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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