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________________ अग्रभाग पर दृष्टि लगाये हुये है। मानो ससार की मारी सम्पत्ति उसको अन्तर मे ही मिल गई है-अपनी आत्मविभूति को पाकर वह लोक की ओर से बेसुध हो गया है । एक दम्पत्ति ने उसे देखा-सृष्टि सौन्दर्य से भी अधिक आकर्षक पाया उसे । वे रुके उस शान्ति मूर्ति को देखकर वे चौंके । स्त्री पूछती है, "प्रियतम ! यह कौन हैं ? सुन्दर मौम्य युवक होकर भी किस दुख के कारण इन्होंने यह वनवास लिया है " पति ने कहा, "प्रिये, भूलती हो । ससार के सब सुख इन्हें प्राप्त थे। यह विदेह के रत्न क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के नन्दन महावीर वर्द्धमान हैं। इन्होंने स्वेच्छा से आकिंचन्य व्रत धारण किया और वनोवास लिया है । सारी सम्पत्ति इन्होंने खुशी से उनको दे। डाली जिनको उसकी आवश्यकता थी। राज्य लक्ष्मी का त्याग करके यह युगप्रवर्तक युवक लोक का कल्याण करने के लिये योग साधना मे लीन हुये हैं । यह अजान का नाश कर रहे हैं, दुखों को जीत रहे हैं-मौन होकर जीव-अजीव प्रकृति का देश-देश में घूमकर अध्ययन कर रहे हैं। एकान्त में निरे अकेले रहकर सूक्ष्म विचार-रूपी डोरी को आकाश की ओर फेंक कर ससार की अशान्त और संतप्त आत्माओं के उद्धार के लियेउनको संसार सागर से तारने के लिये धर्म-विज्ञान का पुल वना रहे हैं । 'जीवमात्र को सुख और शान्ति मिले इसलिये यह धर्म-तीर्थ की स्थापना करने जा रहे हैं। यह अन्तिम तीर्थंकर जो हैं।" पत्नी हर्पविह्वल हो बोली, "अहो प्रियतम ! मैं समझी। यह तो महाप्रभु लोकोद्धारक महावीर वर्द्धमान जिनेन्द्र हैं।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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