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________________ ( २३१ ) का स्मरण करता है। उसे ध्यानाकार नासाग्र-दृष्टि-युक्त, शान्तिमुद्राधारी दिगम्बर मूर्तियों के दर्शन करते ही तीर्थकर केवली का स्मरण हो आता है उसे भासता है कि साक्षात् केवली के दर्शन समोशरण मे हो रहे हैं और इसके साथ ही उसको उनकी सब ही पुण्यमई जीवन घटनाये याद आती हैं। जिनके अन्त में वह कैवल्यपद के वैभव का अनुभव करता है। उसका हृदय पवित्र हो जाता है। वह परम्परीण मोक्षभाव को पाकर जीवन सफल करता है । इस प्रकार यह आदर्श पूजा है। श्रेणिक ! मुमुक्षु को इसके अतिरिक्त पाषाण-वृक्ष और पर्वत की पूजा नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनसे आत्मबोध नहीं होता · जो जीव भोले हैं वह आदर्श-पूजा-विज्ञान को नहीं जानते और आक्षेप करते हैं कि पीतल पाषाण की मूर्तियाँ भला मनुष्य का क्या उपकार , कर सकती हैं ? निस्संदेह पीतल-पाषाण की मूर्तियों में कुछ भी चमत्कार नहीं है और नहीं ही उनकी पूजा करना उपादेय है। किन्तु जो जिनमूर्तियाँ विशेष ध्यानाकार को लिये हुये हैं और जिनके दर्शन करते ही हृदय पर शान्ति छा जाती है, वे विशेष महत्व रखती हैं। वे आत्म साधना के लिये उत्कृष्ट साधन हैंकिन्हीं भव्य मूर्तियों के दर्शन करते ही अलौकिक शान्ति और सुख का अनुभव होता है । इस युग में सबसे पहले सम्राट भरत ने तीर्थंकर ऋषभदेव की तदाकार मूर्तियाँ निर्माण कराई थीं;जो कैलाश पर्वत पर आज भी सुरक्षित हैं। सच तो यह है, श्रेणिक | कि लोक-व्यवहार बिना स्थापना निक्षेप के नहीं चलता । मनुष्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिये शब्दमई अहश्य-मूर्तियाँ निर्माण करता है और अपने एवं अन्य महापुरुषों के वाक्यों को समझने-समझाने के लिये अक्षरकृत मूर्तियाँ रचता है । यह अतदाकार मूर्तियाँ मनमानी होती हैं। इन अतदाकार मूर्तियों से जब इतना महती और उपयोगी कार्य
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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