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________________ (२२७) को। प्राप्त होना है। अतः उसके लिये आवश्यक है कि वह उस निर्वाण-धाम का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करे, जिसे वह एक सर्वज्ञ जीवन्मुक्त परमात्मा से ही प्राप्त कर सकता है । तीर्थकर सशरीरी परमात्मा हैं-उन्हे निर्वाणतत्व का ज्ञान ही नहीं अनुभव भी है । अतः मुमुक्षु के लिये आवश्यक है कि वह उनकी निकटता प्राप्त करके उस ज्ञान और अनुभव को अपने में विकसित होने दे- सुसुप्त अन्तर-परमात्मरूप को जागत होने दे। साथ ही यह लौकिक मर्यादा भी है-शिष्टाचार है कि मनष्य अपने हित के उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करे। हितोपदेशी तीर्थकर भगवान का उपकार महान् है-वह मनुष्य को ज्ञान नेत्र देते हैं, उसे अन्धेरे से निकाल कर उजाले में ले आते हैं-वह मोक्षमार्ग पर आ जाता है और उस पर ठीक से चलकर सुखधाम को पा लेता है । भला बताइये, इससे बढ़ कर और क्या चाहिये ? अन्धे को दो ऑखें अलौकिक आनन्द का आभास दिलाती हैं और ज्ञाननेत्र त्रिकालवर्ती त्रिलोक का साक्षात् कराते हैं-वह अनुभव असीम-अलौकिक और अखूट होता है। उसका आनन्द चाँद सूरज की तरह अनंत शास्वत होता है। जिनकी निकटता से वह अपूर्व और श्रेष्ठ पद प्राप्त हो, उनकी आराधना और भक्ति करना मनुष्य के लिये स्वाभाविक है। अपने उपकारी के प्रति भक्ति और प्रेम प्रगट करना मनष्य-प्रकृति का कार्य है । यही कारण है श्रेणिक ! जिससे प्रेरित होकर मनष्य जिनेन्द्र की भक्ति करता है। तीर्थकर जिनेन्द्र इच्छा-वांछा से रहित हैं। उन्हें किसी की स्तुति अथवा निन्दा से प्रयोजन नहीं है। वह यह किसी से नहीं कहते कि 'हम सर्वज्ञ-सर्वहितैषी उपास्य देव है; भक्तो ! आओ, हमारी पूजा करो' बल्कि भक्तजन स्वयं अपने हित को लक्ष्य करके उनके प्रति विनय प्रगट करते हैं। इस विनयभाव को प्रगट
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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