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________________ ( १८६ ) स्तुति की। संघ के समस्त साधुओं को भी उन्होंने नमस्कार किया । चारिषेण एक योग्य आसन पर जा विराजे । सोमदत्त भी उनके पास ही जा बैठे। एक साधु ने कहा. 'सोमदत्त ! पुण्यात्मा विशुद्ध हृदयी हो, जो भगवान् की शरण मे आये हो । महती तपस्या करने की तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो ।" यह बात एक ब्राह्मण साधुभेपी को असह्य हुई - वह क्रुद्ध हो बोला, 'यह मूढ़ क्या तप करेगा ? इसे आगम का सामान्य ज्ञान तो है नहीं ! मूर्ख अपनी काली-कलटी स्त्री की याद में दुबला हुआ जा रहा है ।' यह कह कर उसने वीभत्स अट्टहास किया और किन्नर - किन्नरी का रागवर्द्धक गीत यूँ गाने लगा :'कुचलय नवदल सम रुचि नयने । सरसिज दल विभव कर चरणे || श्रुति सुख कर परभृत वचने । कुरु जिन नुति मयि सखि विधु वदने || बहु मत्त मलिन शरीरा मलिन कुचेलाधि विगत तनु शोभा । तद्गमनदग्ध हृदया शोका तप शुष्क मुख कमला ॥ विगता गत लावण्या वरकांति कलाकलावषीर मुक्ता । किं जीविष्यत्यवनिका नाथेपि गतेऽवयं योयं ॥' इस प्रणयगीत ने सोमदत्त के चंचल मन को डॉवाडोल बना दिया । उन्हें रह-रह कर अपनी प्यारी पत्नी की याद सताने लगी । राग और मोह ने उनके विवेक को अंधा बना दिया । वह घर जाने के लिये तैयार हो गये । वारिषेण ने यह देखा । उन्होंने सोमदत्त को रोका नहीं, बल्कि कहा, 'सोमदत्त | घर जाओगे तो चलो प्रभु महावीर का आशीर्वाद लेकर चलो। मित्र हो, हमारे घर भी होते चलो !' सोमदत्त ने बात मान ली। राज
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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