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________________ ( १७६ ) है। जन्मत. बालक कच्ची हडिया के समान है-हंडिया में चाहे तेल रखिये चाहे घी, वैसीही बन जायगी। शिशु भी जैसे सस्कार में दीक्षित किया जाता है, वैसा ही हो जाता है । इसलिये जाति का घमण्ड नहीं करना चाहिये। हृदय में निरन्तर क्षमा और मार्दव रूपी जलधारा वहने दो, जिससे अन्तरग शीतल रहे और तुम अपना एवं पराया हित साध सको " ब्राह्मण पुत्र ने इस पर अपनी नाति मूढ़ता भी खोदी और उसने श्रावक के व्रत धारण किये। धार्मिक जीवन विता कर उसने खव पुण्य कमाया । अन्त समय उसने समाधि ली और वह मर कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वहा के भोग भोग कर अब तू राजा श्रेणिक का श्रेष्ठ पुत्र हुआ है। पहले जन्मों में असत्य को त्याग कर तूने सत्य धर्म को आराधा था, वही विशिष्ट पुण्य फल तेरे उदय मे है। अतः मानवों को निरन्तर धर्म पालना हितावह है।" ___अभयरानकुमार ने मस्तक नमाया और कहा,'प्रभो, धर्म पालने का यह माहात्म्य है तो मुझे अपनी शरण में लीजियेनिम्रन्थ प्रवा दीजिए ! किन्तु गणधर महाराज के सममाने पर अभयराजकुमार उस समय मान गये और माता-पिता की आज्ञा लेने के लिये घर चले आये। कुछ काल पश्चात् ससार की वास्तविक स्थिति को जानते हुए वह एक दिन राजसभा में आए उन्होंने भक्तिपूर्वक श्रेणिक महाराज को नमस्कार किया और सर्वज्ञभाषित यथार्थ तत्वों का सारगर्भित उपदेश देने लगे जिसे सुनकर सब लोगों को दृष्टि तलों की ओर झुक गई। यह सुयोग पाकर उन्होंने पिता से मुनि हो जाने की आज्ञा मांगी। महाराज श्रेणिक मारे मोह के विह्वल हो गये; परन्तु अभयराज के दृढ़ निश्चय के सम्मुख वह झुक गये। अभय राजकुमार को आज्ञा मिल गई। वह भ. महावीर के पास पहुँचे और प्रवर्जित हो गए। इस समय श्रेणिक ने मङ्गलोत्सव मनाया।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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