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________________ ( १७०) के मानने की आवश्यकता ही क्या ? यदि यह कहो कि दूसरे उपादान कारण से जगत बनाता और चलाता है, तो क्या कुम्हार की तरह जगत से अलग रह कर बनाता है या उसमें ही समा कर अलग रहता है तो वह सर्व व्यापक नहीं ठहरता और सृष्टि रचने और सुख दुख देने के लिए उसे दूसरे सहायकों और साधनों की आवश्यकता होगी, जो प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते । फिर जो दूसरों पर निर्भर रहेगा, वह सर्वशक्तिमान कैसा ? इस प्रकार ईश्वर जगत के कार्यों का न उपादान कारण हो सकता है और न निमित्त कारण ! यह आवश्यक ही क्यों, कि लोक का कोई कारण होना ही चाहिये ? यदि ईश्वर कारण है, तो उसका कारण कौन ? और फिर उसका भी कारण कौन ? यह सिलसिला कैसे खत्म होगा ? यदि इसे ईश्वर पर रोकते हो, तो उसे प्रकृति की स्वाभाविक सूक्ष्म शक्ति पर ही क्यों नहीं रोकते ? ईश्वर को सुख-दुख का कर्ता-हत्ता मानकर तुमसे हठीले लोग मनुष्य को उसके हाथ की कठपुतली वना देते हैं, जिससे मनुष्य किसी भी अच्छे-बुरे कर्म का उत्तरदायी नहीं रहता। वह बात २ मे कहता है कि 'यह ईश्वर की लीला है. यह ईश्वर की मर्जी है ! और पुरुषार्थहीन बनता है। दुनिया में कायर पुरुष सताये जाते हैं। ईश्वर की दयालता फिर उसके लिये कहाँ रही ? मनमोहक इन्द्रधनुष और रंगविरंगे फूलों का चटखना देखकर अविवेकी झट से ईश्वर की लीला को दुहाई देता है, वह दीन दुखिया की कुटिया के वीभत्स दृश्य को देखकर जहा दरिद्रता नगा नाच नाच रही हो, क्यों नहीं उसकी करता को पहचानता है ? क्या प्रतिपालक पिता भी कर होता है ? सच तो यह है कि लोक अनादि हैइसका प्रवाह नियमित रोति नीति से चल रहा है प्रकृति का व्यवहार उल्लंघन नहीं होता। मनुष्य स्वय अपना स्वामी है
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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