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________________ ( १६३ ) चुपचाप विष्टामस्त राजपत्र लेते और मस्तक से लगाकर राजा के सामने उपस्थित करते । राजाने कहा, अमात्य । विष्टाग्रस्त इस पन को मस्तक पर लाते तुम्हे ग्लानि नहीं होती? ऐसा क्यों करते हो ?' अमात्य ने उत्तर दिया, 'नरनाथ | आपकी आज्ञा पालना हमारा धर्म है।' श्रेणिक हंसे और बोले, 'यदि यही बात है अमात्य ! तो त्रिलोकाधीश के धर्म शासन का पालन करना क्यों न अनिवार्य हो ? मुनिवेपी इस विष्टागस्त राजपुत्र के तुल्य ही थे । जब इसकी अवज्ञा तुम नहीं कर सकते, तो मैं लोकोद्धारक धर्म चक्रवर्ती महावीर के शासन को अवज्ञा कैसे कर सकता हूँ ?' अमात्य चुप न हुआ और बोला, 'यदि भेष की आड़ मे पाखंडियों को प्रोत्साहन दिया जायगा, तो सच्चे साधु कहाँ मिलेंगे ?' श्रेणिक ने कहा कि 'पाखंडी मुनिभेपी को प्रोत्साहन देने के लिये किसने कहा ? दिगम्बर मुनिभेष की अवज्ञा और अविनय नहीं होना चाहिए, यदि कोई धूर्त पवित्र मुनिभेष को कलंकित करता है, तो वह दण्डनीय है। धर्मनीति कहती है कि उसको समझा-बझा कर स्थितिकरण करना चाहिये। यदि वह धृष्टता करे तो उससे मुनिभेष छीन लेना चाहिये ! याद है, अमात्य | उस दिन की बात, जब एक मुनिवेषी धूर्त धोवी से लड़ रहा था और मैंने उसे भर्त्सना दी थी ! अमात्य ने कहा, 'क्षमा कीजिये, नरनाथ ! अब मैं आपका दृष्टिकोण समझा! निस्सन्देह हमे मुनियों के दिगम्बरभेष, ऐलक-तुल्लकों के सचेल रूप और व्रती श्रावकों की मर्यादा की विनय करना उचित है । सहसा प्रगट रूपेण किसी की भर्त्सना करने का किसी को अधिकार नहीं है। जो गलती पर है उसे एक अवसर गलती सुधारने का अवश्य मिलना चाहिये । अब यह मैं समझा !' श्रेणिक प्रसन्न थे। उन्होंने आगे कहा, 'दुनिया की वासना में फंसे हुये लोग साधुओं के यथाजात नग्नरूप को देखकर नाक भौं
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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