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________________ ( १५८ ) अमृतश्रवा नामक मुनि उसे मिल गये। उनसे उसे अपने कुकर्मका पता चला। उन्हीं मुनि से उसने धर्म का स्वल्प सुना और व्रत लिया। रोहिणी नक्षत्र के योग पर उसने उसे पाला और अपने दुष्कृत्य को धो डाला। व्रत-उपवास करना, दान देना और देवोपासना मे आसक्त रहना उसके मुख्य कर्म थे। भोगों को उसने जाना नहीं; धर्म-साधना में वह क्षीण शरीर हुई । वही दुर्गन्धा का जीव रोहिणी हुआ। पहले उसने खुब धर्म-कर्म किये और अब भी उसने जिनेन्द्र की विशेष पूजा की है। इसलिए उसके पुण्य की सीमा नहीं है। पुण्य से ही जीव संसार में किञ्चित् सुख-साता पाता है और पाप से दुख उठाता है। रोहिणी का जीव जब भोगों मे अंधा था और साधु-अभ्यर्थना भी उसे खलती थी, तब वह पतित हुआ-दुखी वना! परन्तु वही जब भोगों को जीतने लगा और योग की साधना में लीन हुआ तो इतना सुखी वना कि दुख-शोक का नाम न जाना । अशोक और रोहिणी यह पर्व वृतान्त सुनकर प्रसन्न हुये। उन्होंने त्याग का महत्व जाना । राज-बन्धन से वह मुक्त हुये। अशोक मुनि हुये और रोहिणी अर्जिका! दोनों ने तप तपा| अशोक शरीर बन्धन से मुक्त हो गये उन्हें आत्म स्वराज्य मिल गया! रोहिणी स्वर्ग-सुख भोगकर उसे पायगी। श्रेणिक! तुम्ही वताओ, बहकी दुनियां को सन्मार्ग पर लाने के लिये ज्ञान सूर्य का प्रकाश क्या वाञ्छनीय नहीं है ? वर्द्धमान राजमहल के भोगों में मुग्ध होकर कैसे महावीर बनता ?" अणिक वीर-वाणी को सुनकर कृतकृत्य हुआ भाग्य को सराहने लगा। वह बोला, 'नित्सन्देह नाथ ! आपका ही जीवन सफल है-मानव-जीवन का ठीक उपयोग आपने ही किया है। हे महाभाग! आप ही सच्चे जिनेन्द्र ( Lord Conqueror ) है-सारे लोक के सरक्षक और कल्याणकर्ता हैं। हे वर्द्धमान !
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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