SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३०) यह विहार समवशरण विभूति सहित होता था, जिसके कारण वर्म की विशेष प्रभावना होती थी। श्वेताम्बरीय 'कल्पसूत्र' में भगवान् के इस धर्म प्रचार का उल्लेख भी उनके चातुर्मासों के रूप में किया है, यद्यपि एक केवली तीर्थकर के लिये चातुर्मास का नियम लाग नहीं है उनका जीवन इतना पवित्र और निर्मोही हो जाता है कि सूक्ष्मतम वध भी नाम मात्र को नहीं होता -उनके ईयोपथ आस्रव होता है । निष्काम लोकोपकार क्रिया में जो कर्मवर्गणायें आती हैं वह कपाय के अभाव में निकली चली जाती हैं। इसलिये ही वर्षा का नियम तीर्थङ्कर के लिये आवश्यक नहीं है। 'कल्पसूत्र' के इस वर्णन से यही समझना चाहिये कि सर्वज्ञ होने पर भगवान् की इतनी वोर्ये उल्लिखित क्षेत्रों के आस पास विहार करने मे बीतीं थीं। 'कल्प. सूत्रानुसार भगवान ने इन तीस वॉकी वर्षायें क्रमशः वैशाली, वणियग्राम, राजगह नालन्दा, मिथिला, भद्रिका, अलामिका, प्रणतिभूमि, श्रावस्ती और पावा में धर्मपीयूप-वर्षा में बिताई थीं। वह राजगह में सव से अधिक वार आये। मगध सम्राट श्रेणिक विम्बसार के निमित्तसे वहाँ खव धर्म वर्षा हुई। राजगह ने विपुलाचल पर्वत पर ही कई राजाओं, राजकुमारा और राजकुमारियों एवं श्रेष्टी पुत्र-पुत्रियों और साधारण भव्य पुरुषों ने वीर संघ में मुनि अथवा श्रावक के व्रतों को धारण करके लोकोद्धार के मार्ग में अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया था। राजगह से भगवान् वैशाली और वणियग्राम की ओर विहार कर गये प्रतीत होते हैं। वैशाली के राजा चेटक ने मुनिव्रत धारण किये थे और उनके पत्र सेनापति सिंहभद्र आदि भगवान् के उपासक हुये थे। उपरान्त वह सारे देश में विचरे थे। अभाग्यवश उनके विहार का क्रमवद्ध वर्णन कहीं सुरक्षित नहीं मिलता । श्वेताम्बरीय 'भगवती सूत्र' में
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy