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________________ वैराग्य और दीक्षाग्रहण "जीवन का है लक्ष्य नहि, भौतिक सुखका भोग । विषय वासना तज करो, परम शान्ति उपभोग ॥" -'अज्ञात' भगवान महावीर ने अपने उत्तम जीवन का प्रारम्भिक भाग पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करके जीवन रहस्य के तत्वों की शोध और अनुभव करने में बिता दिया। लोकहित के कार्यों मे निरत रहकर उन्होंने 'सत्य' के प्रत्यक्ष दर्शन किये। जीवन के आदर्श का महत्व उन्होंने आंका-पार्थिवता में नहीं, आत्मिकता में उन्होंने सत्य को पाया । इसलिये आत्मा की उपासना करने के लिये वह लालायित हो उठे। निस्सन्देह प्रत्येक महापुरुष के जीवन में एक ऐसी स्थिति आती है, जब वह विषय-वासनाओं और भोगों से सर्वथा विरक्त होकर यथार्थ सत्य को प्राप्त करने के लिये व्यग्र हो उठता है-आत्मासंयम की उच्च भावनाओं मे रमण करना उसे प्यारा लगता है। है भी यह ठीक क्योंकि जीवन को आदर्श बनाने अथवा आत्मशुद्धि के लिये जीवित रहना ही जीवन का प्रधान उद्देश्य हो सकता है। धन-सम्पत्ति, राज, भोगविलास आदि वस्तुये तो वाह्य साधन हैं और अपूर्ण हैं, क्यों कि वे स्वयं नाशवान हैं। लॉर्ड अवेबरी ने उनके विषय मे ठीक कहा है कि "धन हमे सुखी नहीं बना सकता, ऐहिक सफलता हमे सुख तक नहीं पहुँचा सकती, मित्रगण हमे सुखी नहीं कर सकते और स्वास्थ्य एवं शक्ति भी हमको सुखी नहीं बना सकती ! यद्यपि यह सब वस्तुयें सुखके लिये हैं, परन्तु इनसे वास्तविक सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। हाँ, प्रकृति सब कुछ कर सकती है। वह हमको सुस्वास्थ्य, धन, दीर्घ आयु आदि सब ही वस्तु प्रदान
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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