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________________ ( ७६ ) प्रकट कर दिखाया । वह विषधर ऋद्ध और तुभित हुआ अपने मुंह से विषभरी फकार कर रहा था । वालक उसे देखते ही घवड़ाये और अपने २ प्राण लेकर भागने लगे। किन्तु राजकुमार महावीर जरा भी विचलित नहीं हुये। उन्होंने अपने सखाओं को विपत्तिमुक्त करना अपना कर्त्तव्य समझा-धैर्य से उन्होंने काम लिया । हाशियारीसे उन्होंने उस साप को अपने वश कर लिया और उसके फण पर पैर रखकर मित्रों को अभय कर पास बुलाया । देव यह सव कुछ देखकर प्रभावित हुआ । वह कुमार के सम्मुख आकर नतमस्तक हुआ और अपनी धृष्टता के लिये क्षमा याचना करने लगा । कुमार महावीर उदार हृदय थे। उन्होने देव से क्या कहा, यह तो मालम नहीं, परन्तु यह निश्चित है कि वह लोककल्याण के लिये अहिर्निशि तन्मय रहते थे। देव ने 'अतिवीर' कहकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी पवित्र-स्मृति लिये हुये वह अमरलोक को चला गया।३। राजकुमार महावीर क्रमश. यौवन लक्ष्मी को प्राप्त हुये। उनका नवीन कनेर के समान वर्णवाला सात हाथका मनोज शरीर, निस्वेदता आदि स्वाभाविक अतिशयों से युक्त सबका मन मोहता था ।२ राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला अपने लाडले १.३०पु० पृ० ६०७-६०८ मथुरा कंकालीटीला से कुशाण कालीन एक ऐसा शिलापट उपलब्ध हुश्रा है, जिसमें देव-परीक्षा की इस घटना का चित्रण है। २. जन्म से ही तीर्थकर-नाम-कर्म प्रकृति के उदय में तीर्थक्षरों के यह दश अतिशय होते है, (6) मलमूत्र रहित शरीर, (२) पसीना न घाना, (३) दूध के समान रक, (५) पत्रवृपमनाराच संहनन, (२) समचतुरम संस्थान, (६) भद्मत रूप (७) अतिशय सुगघता, (क) एक हजार आठ लक्षणयुक्त शरीर () अनंसरल,
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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