SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक संदर्भ स्वरूप में कुछ भी अन्तर नहीं होता। जो कुछ भी अन्तर होता है, वह व्यावहारिक अन्तर है। (२) जीवन-शुद्धि : भगवान की आत्मौपम्य-दृष्टि में जीवन-गुद्धि का प्रश्न आ ही जाता है । अज्ञात काल से चेतन का प्रकाश भी आवृत्त हो, ढका हुआ हो, उसका आविर्भाव कमवंशी हो, फिर भी शक्ति तो उसकी पूर्ण विकास की, पूर्ण शुद्धि की है ही। जीवतत्त्व में अगर पूर्ण शुद्धि की शक्यता न हो, तो आध्यात्मिक साधना का कोई अर्थ ही नहीं रहता । सच्चे आध्यात्मिक अनुभव संपन्न व्यक्तियों की प्रतीति हर जगह एक ही प्रकार की है, 'चेतन: तत्त्व मूल में शुद्ध है, वासना और संग से पृथक है ।' शुद्ध चेतनतत्त्व पर वासना या कर्म की जो छाया उठती है, वह उसका मूल स्वरूप नहीं। मूल स्वरूप तो उससे भिन्न ही है। यह जीवन-शुद्धि का सिद्धान्त हुआ। (३) जीवन-पद्धति : __अगर तात्विक रूप से जीवन का स्वरूप शुद्ध ही है, तो फिर उस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए क्या करें, यह साधना-विषयक प्रश्न खड़ा होता है । भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहा है कि जहां तक जीवन-पद्धति का परिवर्तन नहीं होता है, प्रात्मौपम्य-दृष्टि और यात्मशुद्धि साध्य हो इस प्रकार जीवन में परिवर्तन नहीं होता है, तव तक आत्मौपम्य और जीवन-शुद्धि का अनुभव नहीं आता । जीवन-पद्धति के परिवर्तन को जैन शैली में चरणकरण कहते हैं । व्यवहारिक भाषा में उसका अर्थ इतना ही हैविलकुल सरल, सादा और निष्कपट जीवन जीना । व्यावहारिक जीवन आत्मौपम्य दृष्टि और जीवन की शुद्धि पर के प्रावरण, माया के परदे बढ़ाते जाने का साधन नहीं है, बल्कि वह साधन है उस दृष्टि और उस शुद्धि को साधने का । जीवन-पद्धति के परिवर्तन में एक ही वात मुख्य समझने की है और वह यह कि प्राप्त स्थूल साधनों का उपयोग इस प्रकार न करें, जिससे कि उसमें हम खुद ही खो जायें। (४) पुरुषार्थ-पराक्रम : यह सब बात सही है, फिर भी सोचना यह पड़ता है कि यह सब कैसे सचेगा ? जिस समाज में जिस लोक प्रवाह में हम रहते हैं, उसमें तो ऐसा कुछ होता हुआ दिखायी नहीं देता । क्या ईश्वर की या कोई ऐसी दैवी शक्ति नहीं है जो हमारा हाथ पकड़े और लोकप्रवाह की विरुद्ध दिशा में हमें ले जाये, ऊपर उठाये ? इसका उत्तर महावीर ने स्वानुभव से दिया है । उन्होंने कहा है कि इसके लिए पुरुपार्थ ही आवश्यक है। जब तक कोई भी साधक स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, वासनाओं के दबाव का सामना नहीं करता, उसके आघात-प्रत्याघात से क्षुब्ध न होते अडिगता से जूझने का पराक्रम नहीं करता, तव तक ऊपर कही हुई एक भी वात सिद्ध नहीं होती। उसी कारण उन्होंने कहा है, संजमम्मि' दीरियम्, अर्थात् संयम, चारित्र्य, सादा रहन-सहन, इन सबके लिए पराक्रम करें। वास्तव में, महावीर कोई नाम नहीं है, विशेपण है । जो इस प्रकार का महान वीर्य-पराक्रम दिखाते हैं, वे सब महावीर हैं । इसमें सिद्धार्थ नंदन तो आ ही जाते हैं, और अन्य ऐसे सारे अध्यात्म-पराक्रमी भी आ जाते हैं। हम निःशंकता से देख सकते हैं कि जो मांगलिक
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy