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________________ महावीर : क्रान्तद्रष्टा, युगसृष्टा २३, काम नहीं चलेगा । सत्य और भी जटिल है । इसमें चार 'स्यात् और जोड़ने पड़ गे ' । इस. प्रकार महावीर ने सत्य को सात कोणों से देखा, उसे स्याद्वाद (थ्यूरी ग्राफ प्रोवेबिलिटी), कहा : (१) स्यात् है भी, (२) स्यात् नहीं भी है, (३) स्यात् है भी, नहीं भी, (४) स्यात्. अनिर्वचनीय है, (५) स्यात् है और अनिर्वचनीय है, (६) स्यात् नहीं है और अनिर्वचनीय, है, (७) स्यात् है भी, नहीं भी है और ग्रनिवर्चनीय भी है । महावीर द्वारा जोड़ी गयी यह. चौथी दृष्टि ही कीमती है, फिर बाकी तो उसी के ही रूपान्तरण हैं । वह है, अनिर्वचनीय, की दृष्टि, कि कुछ है जो नहीं कहा जा सकता, कुछ है जिसे समझाया नहीं जा सकता, कुछ है जो अव्याप्त है, कुछ है जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती है । संक्षेप में, महावीर का कथन है कि सप्तभंग की सात दृष्टियों से सत्य को देखा या समझा जा सकता है । 'स्यात् ' से उनका तात्पर्य है 'ऐसा भी हो सकता है ।" 4 आइंस्टीन ने सापेक्षतावाद ( रिलेटिविटी) को इतना स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि सब चीजें डगमगा गयी हैं । जो कल तक निरपेक्ष सत्य का दावा करती थीं, वे सब डगमंगा गई हैं | विज्ञान व सापेक्ष के भवन पर खड़ा हो गया है । इसलिए मैं कहता हूं कि महावीर की 'स्यात् की' भाषा (स्थावाद ) को अगर प्रकट किया जा सके तो महावीर ने जो कहा है, वह परम सार्थकता ले लेगा, जो उसने कभी नहीं ली थी, यानी आने वाले पाँच सो, हजार वर्षो में महावीर की विचार दृष्टि बहुत ही प्रभावी हो सकती है, लेकिन उसके लिए, 'स्यात्' को प्रकट करना होगा । विवेक की साधना : ODG महावीर की पिछले जन्मों की साधना अप्रमाद की साधना है । हमारे भीतर जो जीवन चेतना है, वह कैसे परिपूर्ण रूप से जागृत हो ? इस विषय में महावीर कहते हैं : 'हम विवेक से उठें, विवेक से बैठें, विवेक से चलें, विवेक से भोजन करें, विवेक से सोयें भी 12 अर्थ यह है कि उठते बैठते, सोते, खाते, पीते प्रत्येक स्थिति में चेतना जागृत हो, मूच्छिंत नहीं । श्रावक बनाने की कला : Sangam महावीर की सतत चेष्टा इसमें लगी कि कैसे मनुष्य श्रावक बने, कैसे सुननेवाला, बने, कैसे सुन सके । और वह तभी सुन सकता है, जब उसके चित्त की सारी विचारपरिक्रमा ठहर जाए । तो श्रावक बनाने की कला खोजने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ा । अव तो हम किसी को भी श्रावक कहते हैं । मगर महावीर के निर्वारण के वाद श्रावक होना ही मुश्किल हो गया । असल में जो महावीर के सामने बैठा था वही श्रावक था । उसमें भी सभी श्रावक नहीं थे । बहुत से श्रोता थे । श्रोता कान से सुनता है, श्रावकं प्रारण से सुनता है | श्रोता को शब्द बोले जाएं, तो वह सुन ले, जरूरी नहीं है ! महावीर ने श्रावक की कला को विकसित किया । यह बड़ी से बड़ी कला है जगत् में । मैं महावीर की बड़ी 'देनों में से श्रावक बनने की कला को मानता हूं । प्रतिक्रमण : श्रात्मा में लौटना : ‘प्रतिक्रमण' शब्द श्रावक बनाने की कला का एक हिस्सा है । 'आक्रमण' का ग्रंथ होता है दूसरे पर हमला करना और प्रतिक्रमण का अर्थ होता है सब हमला लौटा देना,
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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