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________________ भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य भेद के स्थान पर गुण मीर कर्म व्यवस्था, धर्म के नाम पर होने वाले क्रूरतम हिंसा, काण्डों का घोर विरोध और दार्शनिक विवादों के समन्वय हेतु सापेक्ष दृष्टि | ३१७ प्रतिष्ठापित इन मूल्यों की जन व्यापी क्रियान्विति हेतु वे स्वयं उस ग्राध्यात्मिक समर क्षेत्र में कूद पड़े जिसे उन्होंने श्रम द्वारा परिपोषित "श्रमरण दीक्षा " संज्ञा दी और उसी का पुप्पित रूप विश्व- मैत्री, ग्रहिंसा, सत्य, अस्त्येय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हुआ । युगीन चेतना पहुँच उन मूल्यों को इतनी २. महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्यों के तह तक आज की पाए यह अशक्य नहीं तो दुःशक्य अवश्य है । इतना होते हुए भी सुदीर्घ कालावधि में भी जीवित ग्रवश्य रखा गया है । पूर्ण हिंसा एवं त्याग की साक्षात प्रतिमा उच्च कोटि का श्रमरण वर्ग इसका जीता-जागता नमूना है । इस ग्राधार पर हम कह सकते हैं कि भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्यों में इतनी अधिक तर्क प्रधान तात्विकता रही है कि वे उसी रूप में ग्राज विद्यमान हैं, जिस रूप में २५०० वर्ष पूर्व थे । यही एक कारण है कि निर्ग्रन्थ श्रमण संस्कृति किंवा महावीर संस्कृति इतने अधिक ग्रांधी तूफानों के वीच भी श्रवाधगत्या श्राज उसी रूप में प्रतिष्ठित है जब कि उसकी समकालीन वौद्ध संस्कृति भारतीय क्षितिज पर प्रायः नाम शेष रह गई है । अहिंसा, समता आदि सिद्धान्तों की सूक्ष्म व्याख्याएं जिनका आज राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव है, जैन संस्कृति की ही देन मानी जानी चाहिये । स्वनाम वन्य चारित्रात्मा श्रद्धेय ग्राचार्य श्री गणेशलालजी महाराज सा० के समक्ष सन्त सर्वोदयी नेता श्री विनोवा भावे के ये शब्द "जैन धर्म के सिद्धांत आज दुनिया में दूध में मिश्री की तरह घुलते जा रहे हैं" प्रवल प्रमाण है । ग्रतः यह निश्चित है कि चाहे अल्पसंख्यकों द्वारा ही सही, महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्यों का अपनी चारित्रिक गरिमा द्वारा संपोपण सुदीर्घ कालावधि के बाद भी यथावत् है । ३. महावीर का तत्त्व- चिन्तन किसी एक पक्ष तक सीमित नहीं था । उनकी चिन्तन-प्रणाली एवं निरूपण पद्धति जीवन के सभी अंगों, सभी पहलुओं को स्पर्श करने वाली थी | क्या समाज, क्या दर्शन, क्या धर्म और क्या अध्यात्म, कोई भी क्षेत्र उनके तत्त्वचिन्तन से अछूतो नहीं था जबकि कार्ल मार्क्स, गांधी, आइन्स्टीन, सार्त्र आदि चिन्तकों की चिन्तनधारा ग्रार्थिक, सामाजिक, भौतिक ग्रादि एकपक्षीय दृष्टि पर ही टिकी हुई है । अतः उपर्युक्त दार्शनिकों की महावीर से प्रांशिक तुलना 'समुदीर्णास्त्वयि नाथ हृष्टयः उदवाविव सर्व सिन्धवः, के रूप में की जा सकती है । अर्थात् महावीर की ग्रपरिग्रह दृष्टि के साथ मार्क्स की, स्थूल ग्रहिंसा के साथ गांधी की और अनेकान्त स्याद्वाद के साथ आइन्स्टीन की ग्रांशिक तुलना की जा सकती है । ४. ग्राधुनिक संदर्भ में महावीर की क्रान्तिकारी विचार धारा का समुचित उपयोग सापेक्षदृष्टया धर्म-दर्शन-नीति-राजनीति-समाज एवं राष्ट्र हर क्षेत्र में व्याप्त विषमताम्रों के स्थायी समाधान हेतु किया जा सकता है । क्योंकि महावीर की हर दृष्टि जीवन-निर्माण के साथ समाज निर्माण के लिए भी है । आवश्यकता है उन मौलिक विचारों की गहराई में
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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