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________________ ३०६ सांस्कृतिक संबंध हैं । विभिन्न उद्योगों व आविष्कारों, शिल्प विज्ञान, और टेक्नोलाजी से वह निरन्तर बढ़ रही है । भापा सदा ही विकासोन्मुख तथा अर्जनशील रहती है। विकास का नाम ही परिवर्तन है। परिवर्तन कभी वृद्धि के रूप में होता है, तो कभी ह्रास के रूप में। भापा अपने नए-नए रूप, अर्थ तथा नई ध्वनियों आदि को स्थान देती है, साथ ही इनमें से पहले कुछ रूपों आदि को छोड़ती भी जाती है । भापा की प्रकृति ही आगे बढ़ने की है । उसका कोई अंतिम रूप नहीं होता । वैदिक संस्कृत, उत्तर संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्य भापायों के रूप में वह लगातार आगे ही आगे बढ़ती जा रही है। जहां उसकी ऐतिहासिक परम्परा अक्षुण्ण है, वहां अर्जन स्वभाव के कारण या परिस्थितियों के कारण उसमें परिवर्तन भी आते रहते हैं। भापा को बनाने वाले तो साधारण स्त्री-पुरुष किसान, मजदूर, व्यापारी या व्यावसायिक लोग होते हैं । शिक्षित वर्ग तो भापा का संस्कार करता है। और उस संस्कार के पूर्ण होने तक भापा के नैसगिक क्षेत्र में उसकी अप्रतिहत अविच्छन्न धारा प्रवाह करती हुई वहुत आगे बढ़ जाती है। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजी और हिन्दी में पिछले सौ-दो-सौ वर्षों में कितना परिवर्तन हो गया है। प्रश्न के अनेक पहलू : भापात्रों का प्रश्न भारत में कई दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण बन गया है। शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभापा का विशेष स्थान है । प्रशासन के लिए भी प्रादेशिक भाषाओं का महत्व है । पर अखिल भारतीय प्रशासन, उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक शिक्षा, शिल्प विज्ञान, सर्वोच्च न्यायालय, केन्द्र व प्रदेशों के पारस्परिक पत्र-व्यवहार आदि के लिए तो राष्ट्र भापा का महत्व मानना ही होगा । उसके लिए संविधान में हिन्दी को देवनागरी लिपि में स्वीकार किया गया है । परन्तु इस निर्णय को कार्यान्वित करने के रास्ते में अनेक रुकावटें आ गयी हैं, जैसे राजनीतिज्ञों की चालें, रोजगार का प्रश्न, बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों का प्रश्न, सम्प्रदायों विशेषकर मुसलमानों व सिक्खों की भाषाओं का प्रश्न आदि । समस्या को सुलझाने के लिये भापावार-प्रदेश बनाए गए थे, पर वे भाषावाद के गढ़ बन गए हैं और वहां भापा के नाम पर जो झगड़े-फिसाद व आन्दोलन होते हैं, वे सर्वविदित हैं । भाषा के प्रश्न छेड़ना मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने के समान है । हिन्दी व प्रादेशिक भापात्रों के विकास में पूर्ण रूप से कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है। सरकारी मशीन चलाने वाले प्रशासक चाहते हैं कि उन्हें वनी बनायी भापा मिल जाये, तो ठीक, वरना उनके पास अंग्रेजी है ही । अंग्रेजी का मोहपाश बहुत जकड़ने वाला है । भाषा फार्मूला माना जरूर गया, पर उस पर भी अमल नहीं हो रहा है । लिपि का प्रश्न : '. लिपि का प्रश्न भी भापा के प्रश्न से जुड़ा हुआ है । सभी भारतीय आर्य भाषाओं की लिपियां अलग-अलग हैं। दक्षिण की द्रविड़ भाषाओं-कन्नड़ तमिल, तेलगु और मलयालम की लिपियां भी अलग-अलग हैं । इस लिपि भेद के कारण भाषाओं में आदानप्रदान में कठिनाई पड़ती है । आज मुद्रण कला इतनी उन्नत व तेज हो गयी है कि उसके लिए भारतीय लिपियों में बड़े संशोधन की आवश्यकता है । महात्मा गांधी व पंडित जवाहरलाल
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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