SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० सांस्कृतिक संदर्भ सर्वसाम्य का मूल : त्याग और संयम : आज के व्यावहारिक जगत् में भी यात्मनिर्भरता का यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है । अरवों ने तेल की नई नीति अपनाई तो सारा विश्व कांप उठा है और परेशान है । और आत्मनिर्भर कैसे बना जाय इसके लिए नाना उपाय सोचे जा रहे हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि आत्मनिर्भर बनना हो तो संयम अनिवार्य है। अपने उपयोग में आने वाली वस्तुओं का अनिवार्य होने पर ही उपयोग करना यह संयम नहीं तो और क्या है ? इसी में से जीवन में संयम की आवश्यकता महसूस होकर व्यक्ति संयम की ओर अग्रसर होता है, राष्ट्र और समाज भी संयम की प्रोर अनिवार्य रूप ने अग्रसर होता है। इसी संयम को यदि जीवन का व्येय मान लिया जाय तब वह आगे जाकर जीवन की साधना का रूप ले लेता है और त्याग प्रधान जीवन की ओर अनिवार्य रूप से प्रयारण होता है । यही साधुता है, यही श्रमण है । भगवान् महावीर के इस मालिक सन्देश की आज जितनी आवश्यकता है, कभी उतनी नहीं थी। विश्व में जो लड़ाइयां होती हैं उसका मूल कारण मनुष्य में रही हुई परिग्रह वृत्ति ही है । यदि इस परिग्रह वृत्ति को दूर किया जाय तो लड़ाई का कारण नहीं रहे । भगवान् महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ ही परिग्रह मुक्ति से किया है और साधना की पूर्णाहुति के वाद जो उपदेश दिया उसमें भी सबसे बड़े बन्धन रूप में परिग्रह के पाप को ही बताया है । मनुष्य हिंसा करता है या चोरी या झूठ बोलता है तो उसका कारण परिग्रह वृत्ति ही है । यदि परिग्रह की भावना नहीं तो वह क्यों हिंसा करेगा, क्यों झूठ या अन्य अनाचार का सेवन करेगा ? जीवन में जितना संयम उतनी ही परिग्रह वृत्ति की कमी । परिग्रह से सर्वथा मुक्ति का नाम है राग और टेप से मुक्ति अर्थात् वीतरागता । जो वीतराग वना उसके लिए मेरा-तेरा रहता नहीं और जहां यह भाव नष्ट हुआ वहां सर्वसाम्य की भावना पाती है। सर्वसाम्य की भावना के मूल में परिग्रह का त्याग अनिवार्य है । और इसी के लिए भगवान् ने अपने जीवन में साधना की और वीतराग होकर अन्य जीवों को मुक्त कराने के लिए प्रयत्न किया। उनके जीवन में साधना का प्रारम्भ सामायिक व्रत से होता है और पूर्णाहुति वीतराग भाव या सर्वसाम्य भाव से होती है। ___ यह सामायिक क्या है ? 'आचारांग' में कहा है-सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, सभी को सुख प्रिय है, दुःख कोई नहीं चाहता अतएव किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । यही हुआ सामायिक व्रत या जीवों के प्रति समभाव धारण करने का व्रत । यह व्रत तव ही सिद्ध हो सकता है जब व्यक्ति या समाज या राष्ट्र निःस्वार्थ होकर जीना सीखे, सव सुख दुःख में समभागी बनना सीखें । यह तव ही हो सकता है जव विश्व में वात्सल्य भाव की जागृति हो । विश्व एक है अतएव कोई देश अत्यन्त सुखी है और अन्य अत्यन्त गरोव-यह व्यवस्था टिक नहीं सकती है। यह भाव रह-रह कर विश्व में फैल रहा है, अव मन चाहे तब कोई किसी पर अाक्रमण नहीं कर सकता, करके भी उसका फल तो ले ही नहीं सकता। यह सव व्यवस्था प्राज क्रमशः विश्व संस्था के
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy