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________________ आधुनिक परिस्थितियाँ एव भगवान् महावीर का संदेश २६३ किन्तु समाज के धरातल पर समाज के हितेषियों ने उसे साग्रह वर्णो, जातियों, उप-जातियों में बांट दिया। एक परब्रह्म द्वारा बनाये जाने पर भी 'जन्मना' ही आदमी और आदमी के बीच में तरह तरह की दीवारें खड़ी कर दी गयी । जाति-पांति, ऊंच-नीच की भेद-भावना में मध्ययुगीन राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था एवं मध्ययुगीन धार्मिक आडम्बरों का बहुत योग रहा है। इस युग में राजप्रसादों एवं देव मन्दिरों दोनों के वैभव का वर्णन एक दूसरे से अधिक मिलता है । किसी भी राजधानी में नगर के वैभवपूर्ण, कलात्मक एवं सौन्दर्य का प्रतिमान प्रासाद या तो राजा का होता था या देवता का । राजागण सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए 'शरीर' को अमर बना रहे थे, मुसलमान सेनायें दुर्गों के द्वारों को तोड़ रही थी किन्तु राजा परमदि नग्न स्त्रियों का नाच देख रहा था, लक्ष्मणसेन मातंगी से खेल रहा था, हरिराज नर्तकियों एवं वैश्याओं में निमग्न था। देव मन्दिर भी सुरतिक्रियारत स्त्री-पुरुषों के चित्रों से सज्जित हो रहे थे । कोणार्क, पुरी एवं खजुराहों के मन्दिर इसके प्रमाण हैं । राजप्रासादों में दरवारदारी होते थे तो मन्दिरों में देवदासियां। भक्ति का तेजी से विकास : इस्लाम के आगमन के पश्चात् भक्ति का तेजी से विकास हुआ। इस भक्ति में भी सामन्तीकरण की प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। राजागरण की वृत्तियों की प्रतिच्छाया मधुरा भाव एवं परकीया प्रेमवाद में देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में राजा ही सर्वोच्च सर्व-शक्तिमान है । उसके दरवार में 'दरवारदारियों' की विनम्रता चरम सीमा पर होती है। उसकी कृपा पर ही राजाश्रय निर्भर करता है। .. भक्ति का मूल ही है-पाराध्य की सेवा, शरणागति एवं पाराधन । “भक्ति' में भक्त भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है; विना उसके अनुग्रह के कल्याण नहीं हो सकता । गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी कारण लिखा कि वही जान सकता है जिसे वे अपनी कृपा द्वारा ज्ञान देते हैं--- "सो जानइ जेहि देहु जनाई" रामचरितमानस, अयोध्या १२७/३ पुष्टिमार्ग तो आधारित ही 'पुष्टि' अर्थात् 'भगवान् के अनुग्रह' पर है । 'जाको कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे कू सब कुछ दरसाई' -सूरदास इस प्रकार राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था एवं मध्ययुगीन भक्ति का स्वरूप समान आयामों को लेकर चला । राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में समाज में प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार प्राप्त नहीं होते; वहां समाज में राजा के अनुग्रह एवं इच्छानुसार समाज
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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