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________________ २६४ सांस्कृतिक संदर्भ को व्यवस्था परिचालित होती है; भक्ति सिद्धान्त में भी साधक अपनी साधना के बल पर मुक्ति का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाता, उसके लिए भगवत्कृपा होना जरूरी है। __ इन्ही शासन व्यवस्था एवं धार्मिक व्यवस्था के कारण सामाजिक समता की भावना निमूल हो गयी और उसका परिणाम यह हुआ कि सामाजिक धरातल पर भी ऊंच-नीच की इकाइयों का विकास हुआ। जैन-दर्शन : प्रजातंत्रात्मक मूल्यों का वाहक : अाज प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को राजनैतिक दृष्टि से समान सवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं । जैन-दर्शन शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों के भेद को मानता है। जीव शरीर से भिन्न एवं चैतन्य का कारण है। जव सर्व कर्मो का भय होता है तो प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त वीयं, अनन्त श्रद्धा तथा अनन्त शक्ति से स्वतः सम्पन्न हो जाता है। इस दृष्टि से जैन-दर्शन समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है । सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्व है। इस परम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्णो, वादों, सम्प्रदायों आदि का लेविल चिपकाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जन-दर्शन में हुया है वह अनुपम है । भगवान महावीर ने जातिगत श्रेष्ठता को कभी पावार नहीं बनाया। न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभयो न मुणी रण्ण वासेरणं, कुसचीरेण न तावसो । . . -उत्त० २५ : ३१, समयाए समणो होइ, वंभचेरेण वंभणो नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो -उत्त० २५ : ३२ कम्मुणा वंभरणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तित्रो • कम्मुणा वइसो होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अपने असद् गुणों और दूसरों के सद्गुणों को ढाँकना तथा स्वयं के अस्तित्वहीन सद्गुणों तथा दूसरों के असद्गुणों को प्रकट करना नीच गोत्र की स्थिति के कारण बनते हैं'परात्मनिन्दाप्रशंसे सद्सद्गुणाच्छादनौद्भावने च नीचंगोत्रस्य' -तत्वार्थसूत्र
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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