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________________ २६० नांस्कृतिक संदर्भ एवं मुनियों की धार्मिक साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक भावना के अलग-अलग स्तरों को परिभापित करना आवश्यक है। ऐसे धर्म-दर्शन की नावश्यकता : धर्म एवं दर्शन का स्वरुप ऐसा होना चाहिये जो पंजानिक हो । वनानिको की प्रतिपत्तिकानों को नोजने का मार्ग एवं धामिक मनीषियों एवं दागंनि तत्व-चिन्त कोनी खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है किन्तु उनके निद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध नहीं होना चाहिये । अाज के मनुष्य ने प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था को प्रादगं माना है। हमारा धर्म भी प्रजातन्त्रात्मक शामन पद्धति के अनुरूप होना चाहिए । प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त होते है । दर्शन के धरातल पर भी हमे व्यक्ति मान को समता का उद्घोष करना होगा । प्रजातंत्रात्मक जीवन पद्धति के स्वतन्त्रता एव नमानता दो बहन बड़े मूल्य है। अाज युगीन विचारधारानों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो इस दृष्टि से उनकी सीमायें स्पष्ट हो जाती है। साम्यवादी विचारधाग नमाज पर इतना दल दे देती है कि मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता के बारे मे वह अत्यन्त निर्मम तथा कठोर हो जाती है । इसके अतिरिक्त वर्ग संघर्ष एवं. द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन के कारण यह समाज को वांटती है, गतिशील पदार्थों की विरोधी गक्तियो के संघर्ष या द्वन्द्व को जीवन की भौतिकवादी व्यवस्था के मूल में मानने के कारण मतत नंधपत्व की भूमिका प्रदान करती है, मानव जाति को परस्पर अनुराग एवं एकत्व की आधारभूमि प्रदान नहीं करती। इसके विपरीत व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य पर बल देने वाली विचारधारायें समाज को व्यक्तियों का समूह मात्र मानती है और अपने अधिकारों के लिए समाज से सतत संघर्ष की प्रेरणा देती है तथा साधनविहीन असहाय भूखे पददलित लोगों के सम्बन्ध में इनके पास कोई कार्यक्रम नहीं है । फ्रायड व्यक्ति के चेतन, उपचेतन मन के स्तरों का विश्लेपरण कर मानव की श्रादिम वृत्तियो के प्रकाशन में समाज की वर्जनात्रों को अवरोधक मानता है तथा व्यक्ति के मूल्यों को सुरक्षित रखने के नाम पर व्यक्ति को समाज से वांवता नहीं, काटता है। __ इस प्रकार युगीन विचारधारात्रों से व्यक्ति और समाज के बीच, समाज की समस्त इकाइयो के वीच सामरस्य स्थापित नही हो सकता। आज ऐसे दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एवं वंधुत्व का वातावरण निर्मित कर सके । यदि यह न हो सका तो किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो पायेगी।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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