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________________ २५८ सांस्कृतिक संदर्भ वादी नहीं है । आज एक ओर जहां गति है वहीं दिशा नहीं है । आज की परिस्थितियों में इसी कारण भयावह खतरों से भरी हुई दुनिया में चमकीली ग्राशायें भी हैं । पुराने जमाने की चेतना में आदमी के भाग्य का विधाता “परमात्मा' माना जाता था। इस परमात्मा के प्रति श्रद्धा एवं अनन्यभाव के साथ "अत्यनुराग" एवं "समर्पण" से व्यक्ति छुटकारा पा लेता था । “भक्ति एक ऐसा अमोघ अस्त्र था जो समस्त विपदाओं से छुटकारा दिला देता था; "रामवाण प्रौपधि' थी। आराध्य अलग-अलग हो सकते हैं किन्तु किसी पाराध्य के प्रति “परानुरक्ति" "परम प्रेम", स्नेह पूर्वक किया गया सतत ध्यान से उसकी समस्त मनोकामनायें पूरी हो जाती थी। ___किन्तु आज का व्यक्ति स्वतन्त्र होने के लिए अभिशापित (Condemned to be free) है । आज व्यक्ति परावलम्बी होकर नहीं, स्वतन्त्र निर्णयों के क्रियान्वय के द्वारा विकास करना चाहता है । सार्च का अस्तित्ववाद ईश्वर का निपेध करता है और मानव को ही अपने भविष्य का निर्माता स्वीकार करता है। यह चिन्तन महात्मा बुद्ध के 'अत्ता ही अत्तनो नाथों को ही नाथो परो सिया" "पाप ही अपना स्वामी है; दूसरा कौन स्वामी हो सकता है" के अनुकूल है। अस्तित्ववादी दर्शन यह मानता है कि मनुष्य का स्रष्टा ईश्वर नहीं है और इसीलिए मानव-स्वभाव, उसका विकास उसका भविष्य भी निश्चित एवं पूर्व मोमांसित नही है। मनुष्य वह है जो अपने आपको बनाता है। . जैन-दर्शन में भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाणं य सुहाण य । - अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्टियो॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २० : ३७ आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता या विकर्ता है । सुमार्ग पर चलने पर प्रात्मा मित्र एवं कुमार्ग पर चलने पर वही शत्रु होता है। __ मानव को महत्त्व देते हुए भी सार्च सामाजिक दर्शन के धरातल पर अत्यंत अव्यावहारिक है क्योंकि वह यह मानता है कि चेतनाओं के पारस्परिक सम्बंधों की आधारभूमि सामंजस्य नहीं विरोध है तथा अन्य व्यक्तियों के अस्तित्व वृत्त हमारे अस्तित्व वृत्तों की परिधियों के मध्य पाकर संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों के उद्भावक एवं प्रेरक बनते हैं। सात्र इसी कारण वास्तविक संसार को असंगत, अव्यवस्थित, अवधारित और अज्ञेय मानता है । यही कारण है कि अपने को अपना स्वामी मानते हुए जहां गौतमवुद्ध स्वयं संयम के पथ से प्राणी को दुर्लभ स्वामी की प्राप्ति का निर्देश देते हैं वहां सात्र व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य संघर्प एवं अविश्वास की भूमिका वनाता है।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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