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________________ मनोवैज्ञानिक संदर्भ का निश्चय करता है उसके मन में मानसिक ग्रंथियां जटिलताएं, उलझने टिक ही नहीं सकती । २४८ एवं धम्मस्सविरण, मूलं परमो से मोक्खो । जेरण कित्ति सुये सिग्धं निस्सेसंचाभिगच्छ ॥ इसी भाँति धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अंतिम रस है । विनय के द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्रज्ञान तथा कीर्ति सम्पादन करता है । अंत में निश्रेयस भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है । विक्ती प्रविणीयस्स, संपत्ती विरणीयस्स । जस्सेये दुह प्रो नायं, सिक्खं से ग्रभिगच्छइ । 'अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और विनीत को सम्पत्ति' ये दो बातें जिसने जान ली हैं, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है । स्पष्ट है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता । भारत प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक 'आरोग्य' के सम्पादक श्री विट्ठलदास मोदी 'आरोग्य' के सितम्बर, ७४ ई० के अंक में लिखते हैं— 'मदद एक ऐसी दवा है जो लेने श्रीर देने वाले दोनों को ही फायदा पहुंचाती है । यदि ग्राप दूसरों की भलाई के काम में अपने को भूल जाय तो आपके रोग स्वयं जाने की ओर प्रवृत्त होते हैं । दूसरों की भलाई से संतोष प्राप्त होता है और वह हमारी कल्पना को स्वस्थ बनाता है और स्वस्थ कल्पना, कल्पना करने वाले को भी स्वस्थ ही देखती है । वैयावृत्यरूप तप का यही लाभ है । अज्ञान, अल्प ज्ञान, और शुद्ध ज्ञान का अंत स्वाध्याय से होता है । इसीलिए स्वाध्याय मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपूर्व औषध है । लोकमान्य तिलक ने इसीलिए कहा था कि 'मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा' । इसी प्रकार ध्यान और व्युत्सर्ग भी चंचल और ग्रस्थिर, मनोवृत्तियों को उपशमित करने में सहायक होते हैं । सम्यक साधना आवश्यक : प्रायः प्राप्त सद्ज्ञान का आलस्य और प्रमादवश भलीभांति परिपालन नहीं किये जाने के फलस्वरूप अनेक ग्रावियों का जन्म होता है । भगवान् महावीर इसीलिए कहते है 8 खिप्पं न सक्केह विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी प्रायारण रक्खी चरमप्पमत्त ॥ आत्म विवेक कुछ झटपट प्राप्त नहीं किया जाता - इसके लिए सम्यक् साधना की आवश्यकता है | महर्षिजनों को बहुत पहले से संयम पथ पर दृढ़ता के साथ खड़े होकर, कामभोगों का परित्याग कर, समता पूर्वक स्वार्थी संसार की वास्तविकता को समझकर, अपनी आत्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा अप्रमादी रूप से विचारना चाहिए ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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