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________________ २१६ वैज्ञानिक संदर्भ निकलेगी । अतः नवसे बड़ी चीज है-उपवास । उपवास अनशन का पर्याय नहीं है, प्रत्युत वह है-समीपवास, चरमसत्य के समीप पहुंचने का समाध्यात्मक प्रयास । इस तप से उस सत्य का साक्षात्कार हो जायगा। न चन्त्रि ऊपर से थोपा हुआ सम्यक् चरित्र है और न. दान तथा ज्ञान ही। दर्शन अात्मनिहित सत्य की उपलब्धि है, ज्ञान उसी का परिपाक है और चन्त्रि उसी की परिणति । इसी 'सत्य' की उपलब्धि के मार्ग हैं--अस्तेय, अपरिग्रह तथा अहिंसा। इनमें भी अहिंसा प्रमुख है जैसा कि पहले कहा जा चुका है। हिंसात्मिका वृत्ति के अस्त होते ही जो पूर्वत: विद्यमान स्थिति व्यक्त हो जाती है वह है 'अहिंसा'। इस वृत्ति के उदित होने पर चोर्य और परित्रह स्वयम् शांत हो जाते हैं, फलतः 'सत्य' का 'दर्शन' होता है और ब्रह्मचर्य उसी का वाह्य प्रकाश है। अनेकान्तवादी हष्टि के प्रवर्तक भगवान् महावीर विचारों में भी अहिंसक हैं। यह अनेकान्तवादी दृष्टि जिसे मिल जाय उसमें हिंसा वृत्ति का निपेव हो ही जायगा। अस्तित्व का आन्तरिक बोध : अपने अस्तित्व का बोय प्रत्येक व्यक्ति चाहता है । इसी के लिए यह सारा संघर्ष है। पर आज का और अाज का ही नहीं, सदा का परिग्रही और हिंसक मानव-पशु इस 'अस्तित्व' का बोव दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करके कर पाता है, अन्य निरपेक्ष होकर नहीं। वास्तव में 'अस्तित्व के प्रांतरिक रूप का बोध जिसे महावीर निर्दिष्ट 'अहिमा' और 'अनेकान्तवादी' पद्धति से हो चुका है-वह अपने 'अस्तित्व' को निरपेक्ष पूर्णता का साक्षात्कार कर चुका होता है । अतः वह स्वयं में इतनी तृप्ति का अनुभव करता है कि उसे प्रात्मेतर का माध्यम नहीं अपनाना पड़ता। वह केवली' हो जाता है। पर आत्मेतर माध्यम से अपने 'अस्तित्व' का बोय करने वाला चोर, परिग्रही तथा हिंसक होता है। ये ही वे माध्यम हैं उसकी दृष्टि में, जिनसे वह दूसरों का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित फगता है और इस रास्ते अपने अस्तित्व का दोय करता है। पर-सापेक्ष अस्तित्व का वोव 'दुरहता' का वोध है जो विश्व के लिए घातक है और पर-निरपेक्ष अस्तित्व का वोध निर्मल भात्मा का स्वरूप बोध है जो प्रात्मकल्याण और विश्वकल्याण दोनों का साधक है, दोनों के लिए अनुकूल है। इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट अध्यात्ममूलक पथ के प्रचार-प्रमार से प्रारोपित प्राचार की जगह स्वतः स्फूर्त सदाचार व्यक्ति-व्यक्ति में प्रकट होगा, वर्तमान पन्मिनी युग में प्रात्मकल्याण और लोक-कल्याण की दिशा में यह सर्वथा पोर सर्वोपरि उपयोगी होगा।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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