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________________ २१४ वैज्ञानिक संदर्भ रही परम्परा तो वह भी इतनी हल्की नहीं होती। किसी ने ठीक कहा है कि शताब्दियों के जीवन से इतिहास वनता है और सदियों के इतिहास से परम्परा । इस परम्परा को स्थिरता और मान्यता देने में असंख्य जनता की जीवनमयी प्रयोगशाला सक्रिय रहती है। उसे यों ही नहीं ठुकरा दिया जा सकता। धर्म की बुनियाद अनुभव : धर्म के अनुभवात्मक स्वरूप पर सर्वाधिक बल हिन्दू धर्म में दिया गया है । हिन्दू धर्म का प्रयोग यहां उन सब धर्मों के लिए दिया गया है जो पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। हिन्दुस्तान की धरा पर उत्पन्न होने वाला चाहे नैगमिक और प्रागमिक परम्परा से संबद्ध हो अथवा जैन और वौद्ध, सभी पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं । यद्यपि यह सही है कि प्रत्येक धर्म अपने पुरस्कर्ता के अनुभव पर ही प्रतिष्ठित है। वेद का नाम ही ज्ञान है जिसके द्रष्टा ऋष हैं, स्रष्टा नहीं । वौद्ध बुद्ध के बोधि पर ही केन्द्रित है । जैन धर्म का सव कुछ तीर्थंकरों का अनुभव है। मूसा ने भी जलती हुई झाड़ी में ईश्वर को देखा था और एलिजा ने दिव्य अनाहतनाद सुना था । कहां तक कहा जाय सभी धर्मो की बुनियाद अनुभव है। रहा यह कि सभी धर्मों की मूल मान्यतानों में, आसमानी किताबों में जो मतभेद है-और पारस्परिक विरोध वश जो पारस्परिक अमान्यता का सवाल है, वह व्यक्तिगत अनुभव वैचित्र्य तथा उसकी प्रतीकात्मक भाषा के कारण है। अन्यथा स्वामी रामकृष्ण के विषय में प्रसिद्ध ही है कि उन्होंने सभी धर्मों की साधनाएं अनुष्ठित की थीं और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी एकमत हैं सव ओर से एक ही गंतव्य पर पहुंचा जा सकता है । विरोध खण्डित भूमिका के द्रष्टा की दृष्टिवश है-दृष्टि कोण वश है। . विभिन्न अध्यात्मवादियों की उपलब्धियों में पारस्परिक विरोध जिन्हें दिखाई पड़ता है. उन्हें विज्ञान की विभिन्न शाखाओं से उपलव्य मान्यताओं में विरोध क्यों नहीं दिखता ? विरोव तो वहां भी है और विज्ञान अपनी सत्यान्वेषण प्रक्रिया में स्वयं पूर्ववर्ती निष्पत्तियों को परवर्ती उपलब्धियों के आलोक में अग्राह्य ठहरा देता है । जीवन-सत्य तर्क से परे: ___रही, तर्कातीत होने की बात । अव्यात्म के सम्बन्ध में तो, उसके विषय में 'महावीर मेरी दृष्टि में' के भूमिका लेखक की बात मुझे पर्याप्त संगत लगती है। उन्होंने कहा है'तकं विरोध को स्वीकार नहीं करता, किन्तु जीवन विरोधी तत्त्वों से ही बना है। इसलिए जीवन तर्क को पकड़ से चूक जाता है। अतः जीवन का सत्य तर्क में नहीं, तर्क से परे है ।' जैन शास्त्र कहते ही हैं-सव्वे सराणियहंति तक्का जत्थन विज्जति । मति तत्थनं गा हिता (याचारांग) इस विरोव की संगति अनुभव ही लगा सकता है। अध्यात्म और तन्मूलक मान्यताओं में आस्था रखने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि विज्ञान की मान्यतामों से अभिभूत होकर उसकी परीक्षा की जाय अथवा शिश्नोदरदरी पूर्ति के संदर्भ में प्राप्त अनुभवों पर प्राकृत संस्कारों के आलोक में उन्हें देखा जाय । उनके प्रति प्रास्थावान होने के लिए आवश्यक है उनकी 'साधना' और उनकी 'दृष्टि' पकड़ी जाय ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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