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________________ १८२ दानिक मंदर्भ जब तक हम बहिर्मुखी जीवन बिताते हैं और अपनी प्रान्तरिक गहराइयों को थाह नहीं लेते, तब तक हम जीवन के अर्थ अथवा धात्मा के रहस्यों को समझ नहीं सकते हैं। जो लोग सतही जीवन जीते हैं, उन्हें स्वभावतः ही यात्मिक जीवन में कोई श्रद्धा नहीं होती है । परन्तु जब एक बार व्यक्ति यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु 'स्व' को केन्द्र बना लेता है, तब उसमें इतनी अधिक शक्ति और स्थिरता आ जाती है कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी शान्ति और शक्ति को बनाये रखने में समर्थ होता है। मानवीय प्रयत्न का अंतिम लक्ष्य प्रात्मा की परम प्रशान्तता प्राप्त करना है। ___ व्यक्ति के जीवन की प्राधारशिला आध्यात्मिक परम्परायें हैं और उनके लिये आवश्यकता है-यात्मानुशासन को, यात्म केन्द्रित होने की और प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति की। आध्यात्मिक चिन्तन-मनन और आत्मा-परमात्मा की चर्चा-वार्ता करना मात्र धर्मस्थानों की परिधि तक सीमित नहीं है । यह तो प्रतिक्षण के जीवन का अंग है। इनके स्वरों को, सुनिये । प्राध्यात्मिक चिन्तन सर्वजनहिताय है, सब जीवों के कल्याण के लिये है। यह तो सबके मन को पवित्र बना कर अन्तज्योति जगाता है। प्राच्यात्मिक जागृति का कार्य वस्तुतः श्रेष्ठतम कार्य है, इसके लिये जिज्ञासु व्यक्ति तत्पर हो सकता है। __ अच्छे जीवन और सामाजिक व्यवस्था के केन्द्र में आध्यात्मिक मूल्यों की सर्वोच्चताको स्वीकार करना ही होगा । भ्रमवश भौतिक शरीर या बुद्धि को ही प्रात्मा नहीं समझ लेना चाहिये। बुद्धि, मन और शरीर की अपेक्षा अधिक गहरी भी कोई वस्तु है-वह है आत्मा, जो समस्त शिव, सत्य और सुन्दर के साथ एकाकार है : मानव को न केवल तकनीकी दक्षता प्राप्त करनी है, अपितु प्रात्मा की महानता भी प्राप्त करनी है। जब तक मानव अपने अन्तनिहित स्वभाव को नहीं पहिचान लेता, तब तक वह पूरी तरह 'स्वयं' नहीं होता है। कुछ हम से छूट गया है : भौतिक उन्नति से हमें संतोप नहीं हो सकता है । यदि हमारे पास खाने के लिये अटूट अन्न भंडार हो, विविध व्यंजनों के अम्बार सुरक्षित हों, आवागमन के मुचारू परिवहन हों, विश्व में प्रतिक्षण घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी के लिये आवश्यक सुविधायें सुलभ हों, शारीरिक रोगों का दमन एवं उन्मूलन भी हो जाये और प्रत्येक व्यक्ति दीर्घायु तक जीवित भी रहने लगे, तव भी परम सत्य के लिये आकांक्षा बनी ही रहेगी। - शरीर, मस्तिष्क और आत्मा इन तीनों के स्वाभाविक सामंजस्य के निर्वाह से व्यक्ति सुखी हो सकता है । लेकिन आज के युग में आध्यात्मिक मूल्यों को भुला कर हम मस्तिष्क की उपलब्धियों पर अधिक जोर देने लगे हैं । वैज्ञानिक आविष्कारों और खोजों ने अधिकाधिक समृद्धि उत्पन्न करदी, अकाल पर लगभग विजय प्राप्त करली गई, प्लेग और महामारियों जैसी जीवन की दुखद घटनाओं पर नियन्त्रण कर लिया, सामाजिक व्यवस्था के विषय में विश्वास और सुरक्षा की भावना विश्व में फैली, लेकिन प्रेम, सौन्दर्य और आनन्द की उस व्यवस्था को विकृत बना दिया, जो प्रात्मा के विकास के लिये अत्यावश्यक है ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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