SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० दार्गनिक संदर्भ आध्यात्मिक ज्ञान-ज्योति : इतना होने पर भी यह तो निर्विवाद है कि प्रत्येक प्राणी इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये लालायित रहता है । आध्यात्मिक ज्ञान-ज्योति की लघुतम किरण सदैव उसके अंतरंग को प्रकाशित करती रहती है । अस्तित्व का यह सारतत्त्व प्रत्येक प्राणी के अन्दर अवस्थित है, जिससे वह किसी भी विकटतम स्थिति में हेयोपादेय के विवेक द्वारा मोहोन्माद को उपशांत करने के प्रयत्न में जुट जाता है । इस प्रकार जीने की इच्छा, सुखाभिलापा एवं दुःख के प्रतिकार की भावना में ही आध्यात्मिकता का वीज निहित है । इस आध्यात्मिक उत्कर्ष के द्वारा ही व्यक्ति बहिर्मुखता एवं वासनाओं से विनिर्मुक्त होकर शुद्ध सत-चित्यानन्द घन रूप आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर होता है । इसके विकासोन्मुखी या विकसित रूप द्वारा ही समग्र प्राणधारियों की प्रगति का अंकन किया जा सकता है । आत्मा का ज्ञान होना, समझना संभव है । लेकिन वह केवल विवेक द्वारा नहीं वरन् सम्पूर्ण व्यक्तित्व द्वारा संभव है । इसके लिए आवश्यक है-यात्मानुशासन की, लालसा और उसके सहयोगी भय घृणा और चिन्ता पर विजय पाने की । वासनाओं पर विजय पाने वाला अपने ही भीतर प्रात्मा के सौन्दर्य को देख सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान का अर्थ है, सभी जीव-धारियों में व्यक्त एक अदृश्य वास्तविकता के प्रति आस्था, आत्मिक अनुभव का महत्व और संस्कारों एवं सिद्धान्तों की सापेक्षता ।, याध्यात्मिकता का अनुभव प्रयोग सिद्ध नहीं है वरन् भावनात्मक है और उसके साथ अनुभव का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। भावना अनुभूति है और उसका वेदन 'स्व' में ही होता है। यदि हम सचेतन को केवल पार्थिव अथवा परिवर्तनशील विचारों का पिंड समझे तो समझ नहीं सकेंगे । वह सृष्टि की प्रक्रिया का व्यर्थ पदार्थ नहीं है । वह आध्यात्मिक प्राणी है और जब उसका स्वाभाविक जीवन प्रारम्भ होता है, तभी उसके आध्यात्मिक अस्तित्व का पता चलता है। सचेतन सृष्टि के समस्त प्राणधारियों में मानव-जीवन का महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान है। उसकी अपनी मौलिक विशेषतायें हैं, जो अन्य प्राणधारियों में नहीं पाई जाती हैं। मानव और पशु आदि सचेतन हैं लेकिन मानव में विवेकयुक्त चेतना का प्रादुर्भाव है। वह अंधी भौतिक शक्तियों का शिकार नहीं है, वरन् अपने भविष्य के निर्माण में स्वयं अग्रसर होता है । पशु नकल करके ही कुछ सीखते हैं, किन्तु अनुभव से सीखने की क्षमता का सर्वाधिक विकास मानव में ही हो पाया है। विकास का सही अर्थ : आधुनिक युग विकास का युग अवश्य कहलाता है परन्तु विकास के सही अर्थ को न समझ कर विकास की बातें होते देखकर विस्मय होता है। भौतिक सम्पदा की वृद्धि बास्तविक विकास नहीं है, लेकिन आज विकास का यही अर्थ माना जाता है । विकास दो
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy