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________________ महावीर वाणी : सही दिशा-वोध सतत् परिवर्तनशील मानव चेतना के द्वारा ग्रर्जित अनुभव सम्पदा को अपने भीतर समाहित कर पाने में सक्षम बना रहा । भगवान् महावीर के अवतरण के समय में हिंसा, कर्मकाण्ड व भोगवादिता की चरम सीमा थी । समाज में प्रचलित बहिर्मुखता के कारण व्यक्ति स्वार्थी और भोगलिप्सु वनकर निरंकुश जीवन जी रहा था। इस अत्यधिक विलासिता के फलस्वरूप जीवन की मर्यादा खण्डित होने लगी थी। सामाजिक जीवन का ह्रास हो रहा था । कुल मिलाकर ग्राधिभौतिक मूल्यों के नीचे प्राध्यात्मिक मूल्य दवे-कुचले जा चुके थे । ऐसे समय महावीर के प्राकट्य से एक नये वातावरण का निर्माण हुआ । उन्होंने बहिर्मुखता में खोये प्रशान्त जीवन को स्थिर चित्त होने की सीख दी । नष्ट प्रायः मर्यादाओं को फिर जीवित किया और बाहरी - भीतरी जीवन में सन्तुलन व संयम की रचना की । कहने का ग्राशय यह है कि संकुचित स्वार्थी से व्यक्ति का ध्यान हटाकर उसे विशालतर जीवन भूमि की थोर आकर्पित किया । इससे व्यक्ति व समाज के भीतर शुचिता व पवित्रता का नवोन्मेष हुा । पर इस सबके पीछे सामंजस्य व सन्तुलन की भावना बराबर बनी रही । ऐसा नहीं हुआ कि भौतिकता का एकदम तिरस्कार करके कोरी प्राध्यात्मिकता को ही प्रतिष्ठित किया गया हो । १७१ प्रायः यह देखने में थाता है कि एक प्रतिवादिता को समाप्त करने के उत्साह में मनुष्य दूसरी प्रतिवादिता को स्थापित कर बैठता है । मानव सभ्यता के इतिहास में यह एक अति परिचित तथ्य है कि विरोधी विचार धारात्रों के संघर्ष के फलस्वरूप जीवनसत्य का वरावर तिरस्कार होता रहा । जीवन की वास्तविक सच्चाई तो उस बिन्दु पर रहा करती है जहां विरोधों में सामंजस्य रहा करता है । लेकिन ऐसा प्रायः होता नहीं है । अक्सर विचारों का पारस्परिक द्वन्द्व एक-दूसरे की काट में उलझ कर वास्तविकताओं से दूर जा पड़ता है । फलतः कोरी शास्त्र चर्चा व बौद्धिक व्यायाम के कारण एक नये पाखण्ड का जन्म होता है । जैन धर्म का इतिहास इस बात की सूचना देता है कि उसके मूल में कहीं गहरी अर्थवत्ता छिपी हुई है । यही कारण है कि किसी निश्चित विचार-धारा के प्रति उसका हठी आग्रह नहीं है, जो कि ग्रन्यत्र प्रायः देखने को मिलता है । जैन धर्म की श्रार्ष दृष्टियां : प्रायः सत्य की अनेकरूपता के कारण किसी विशेष विचारधारा के पोषक दिशाभ्रम के शिकार हो जाते हैं । उन्हें यह ठीक-ठीक नहीं सूझता कि सत्य-असत्य की सीमायें कहां हैं । वे भ्रमवश अपने पक्ष से मेल न खाने वाले अन्य दृष्टिकोणों का पूरी शक्ति से विरोध करते रहते हैं । जैन धर्म में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की धारणायें इन्हीं भ्रान्तियों के निराकरण के लिए अपनाई गई ग्रापं दृष्टियां हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-धर्म की विकास- परम्परा के बीच जैन तत्व-चिन्तकों का यह ग्रजित सत्य इन दार्शनिक श्रवधारणाओं के रूप में प्रस्फुटित हुआ है । प्राचीन भारतीय-विद्या के अध्येता से यह दृष्टि-भेद छिपा न रह सकेगा कि हिन्दूधर्म में जहां 'श्रद्धा' तत्त्व पर बल दिया गया है और 'शंका' तत्त्व की एकान्त उपेक्षा की गई है, जहां जैन धर्म में ठीक इसके विपरीत शंका को प्रश्रय देकर ज्ञान की मूल प्रेरक
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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