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________________ महावीर की दृष्टि में स्वतंत्रता का सही स्वरूप है-संसार में सब कुछ पहले से ही निर्धारित हो तो मनुष्य का पुरुषार्थ व्यर्थ है, क्योंकि पूर्व-निर्धारित अन्यथा नहीं हो सकता । यदि संसार में अच्छा और बुरा करने की स्वतन्त्रता न हो तो पश्चाताप करने का क्या औचित्य है ? किन्तु जहां सब कुछ पहले से निर्धारित हो, वहां पश्चाताप करने से रोका भी नहीं जा सकता । जव तक हम मनुष्य की स्वतन्त्रता स्वीकार नहीं करेंगे, तव तक हम उसे किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते । अनेकांत दृष्टि हमें इस वास्तविकता पर पहुंचा देती है कि इस विश्व में नियत वही है, जो शाश्वत है । जो अशाश्वत है, वह नियत नहीं हो सकता । अस्तित्व शाश्वत है। कोई भी पुरुषार्थ उसे अनस्तित्व में नहीं बदल सकता । जो योगिक है, वह अशाश्वत है । वह पूर्व-निर्धारित नहीं हो सकता । उसे बदलने में ही स्वतंत्रता और पुरुपार्थ की अर्थवत्ता है । पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता है, संसार को अच्छा या बुरा किया जा सकता है । यह पुरुषार्थ की सीमा का कार्य है । ऐसा करने में नियति उसका साथ देती है । अस्तित्व को बनाया-बिगाड़ा नहीं जा सकता । यह पुरुषार्थ की सीमा से परे उन दोनों में विरोध का अनुभव नहीं होता, सापेक्षतापूर्ण सामंजस्य का ही अनुभव होता है । इच्छा, संकल्प और विचार की शक्ति : क्रिया चेतन और अचेतन -दोनों का मौलिक गुण है । अचेतन की क्रिया स्वाभाविक या पर-प्रेरित होती है । चेतन में स्वाभाविक क्रिया के साथ-साथ स्वतन्त्र क्रिया भी होती है । यंत्र की गति निर्धारित मार्ग पर होती है। उसमें इच्छा और संकल्प की शक्ति नहीं होती, इसलिए उसको गति स्वतन्त्र नहीं होती। मनुष्य चेतन है । उसमें इच्छा, संकल्प और विचार की शक्ति है, इसलिए वह स्वतंत्र क्रिया करता है । डंस स्काट्स ने भी इसी आधार पर मनुष्य की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है । उन्होंने लिखा है-'हमारी स्वतन्त्रता हमारे संकल्पों के कारण है । व्यक्ति धर्म के मार्ग को जानते हुए भी अधर्म के पथ पर चल सकता है, यही उसकी स्वतंत्रता है।" मनुष्य ही प्रगति का मुख्य सूत्रधार : प्रगति का पहला चरण है संकल्प और दूसरा चरण है प्रयत्न । ये दोनों मनुष्य में सर्वाधिक विकसित होते हैं । इसलिए हमारे संसार की प्रगति का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है । उसने आंतरिक जगत् में सुख-दुःख सिद्धांत, कल्पना, विचार, तर्क और भावना की सृष्टि की है। उसने बाह्य जगत में आवश्यकता, सुख-सुविधा और विलासिता के उपकरणों की सृष्टि की है । युद्ध और शांति का सृजन मनुष्य ने ही किया है । स्वतंत्रता को सहयोग की दिशा दें : डार्विन ने यह स्थापना की-"संघर्ष प्रकृति का एक नियम है वह शाश्वत और सार्वत्रिक है । वह जीवन-संग्राम का मूल हेतु है।" इस स्थापना का स्वर भारतीय चिंतन में भी "जीवो जीवस्य जीवनम्" के रूप में मिलता है। डार्विन ने जगत को संघर्ष के दृष्टिकोण से देखा । इसमें भी सत्यांश है । किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। महावीर ने जगन को भिन्न दृष्टिकोण से देखा था। उन्होंने इस सिद्धान्त की स्थापना की कि जीव जगत
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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