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________________ महावीर की दृष्टि में स्वतंत्रता का सही स्वरूप १६३ सापेक्षं ही होती है, निरपेक्ष, निरन्तर और निर्वाध नहीं होती । यदि वह निरपेक्ष होती तो मनुष्य इस संसार को सुदूर ग्रतीत में ही अपनी इच्छानुसार बदल देता और यदि वह कार्य करने में स्वतन्त्र होता ही नहीं तो वह संसार को कुछ भी नहीं बदल पाता । यह सच है कि उसने संसार को बदला है और यह भी सच है कि वह संसार को अपनी इच्छानुसार एक चुटकी में नहीं बदल पाया है, धरती पर निर्वाध सुख की सृष्टि नहीं कर पाया है । इन दोनों वास्तविकतात्रों में मनुष्य के पुरुषार्थ की सफलता और विफलता, क्षमता और अक्षमता के स्पष्ट प्रतिबिंब हैं । पुरुषार्थ की क्षमता अक्षमता : मनुष्य की कायजा शक्ति यदि काल, स्वभाव यादि में से किसी एक ही तत्त्व द्वारा संचालित होती तो काल, स्वभाव श्रादि में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती और वे एक दूसरे को समाप्त करने में लग जाते, किन्तु जागतिक द्रव्यों और नियमों में विरोध और विरोध का सामंजस्यपूर्ण संतुलन है, इसलिए वे कार्य की निष्पत्ति में अपना-अपना अपेक्षित योग देते हैं । सापेक्षवाद की दृष्टि से किसी भी तत्त्व को प्राथमिकता या मुख्यता नहीं दी जा सकती । अपने ग्रपने स्थान पर सव प्राथमिक और मुख्य हैं । काल का कार्य स्वभाव नहीं कर सकता और स्वभाव का कार्य काल नहीं कर सकता । भाग्य का कार्य पुरुषार्थ नहीं कर सकता और पुरुषार्थ का कार्य भाग्य नहीं कर सकता । फिर भी कर्तृत्व के क्षेत्र में पुरुषार्थ ग्रग्रणी है । पुरुषार्थ से काल के योग को पृथक नहीं किया जा सकता, किन्तु काल की अवधि में परिवर्तन किया जा सकता है, पुरुषार्थ से भाग्य के योग को पृथक नहीं किया जा सकता, किन्तु भाग्य में परिवर्तन किया जा सकता है। इन सत्यों को इतिहास और दर्शन की कसौटी पर कसा जा सकता है । जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान का विकास होता है, वैसे-वैसे पुरुषार्थ की क्षमता बढ़ती है | सभ्यता के ग्रादिम युग में मनुष्य का ज्ञान अल्पविकसित था । उनके उपकरण भी अविकसित थे, फलतः पुरुषार्थ की क्षमता भी कम थी । प्रस्तरयुग की तुलना में अरगुयुग के मनुष्य का ज्ञान बहुत विकसित है । उसके उपकरण शक्तिशाली हैं और पुरुषार्थ की क्षमता बहुत बढ़ी है | आदिम युग का मनुष्य केवल प्रकृति पर निर्भर था । वर्षा होती तो खेती हो जाती । एक एकड़ भूमि में जितना अनाज उत्पन्न होता, उतना हो जाता । अनाज को पकने में जितना समय लगता, उतना लग जाता । आज का मनुष्य इन सब पर निर्भर नहीं है । उसने सिंचाई के स्रोतों का विकास कर वर्षा की निर्भरता को कम कर दिया है। उसने रासायनिक खादों का निर्माण कर अनाज की पैदावार में अत्यधिक वृद्धि कर दी और कृत्रिम उपायों द्वारा फसल के पकने की अवधि को भी कम करने का प्रयत्न किया 1 उसने संकर पद्धति द्वारा अनाज के स्वभाव में भी परिवर्तन किया है । पुरुषार्थ के द्वारा काल की अवधि और स्वभाव के परिवर्तन के सैंकड़ों उदाहरण सभ्यता के इतिहास में खोजे जा सकते हैं । काल, स्वभाव श्रादि को ज्ञान का वरद हस्त प्राप्त नहीं है । इसलिए वे पुरुषार्थ को कम प्रभावित करते हैं । पुरुषार्थ को ज्ञान का वरदहस्त प्राप्त है, इसलिए वह
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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