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________________ १६ महावीर-वाणी में श्रम-भाव की प्रतिष्ठा • श्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' mammunnanna 'भगवान' और 'श्रमरण' शब्दों की अर्थवत्ता : प्राचीन जैन आगमों व ग्रन्थों में तीर्थकरों के नाम के पूर्व 'भगवान्' शब्द का विशेषण के रूप में प्रयोग किया गया है । जैसे-भगवान् ऋपभदेव, भगवान महावीर आदि । विशेषण विशेष्य की किसी विशिष्टता, विलक्षणता को प्रकट करता है। भगवान् शब्द उनकी 'अनन्तनान शक्ति' का संकेत देता है । तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ और चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर के लिए दो भिन्न विशेपणों का प्रयोग जैन आगमों में देखा जाता है जो भगवान् शब्द से भी पूर्व किया गया है । पार्श्वनाथ के लिए 'पुरिसादाणी' और महावीर के लिए 'समण' । ये दोनों शब्द कुछ विशिष्ट हैं जिनका प्रयोग अन्य तीर्थकरों के लिए कहीं नहीं किया गया है। पार्श्वनाथ ने अपने युग में जो श्रेष्ठता और विशिष्ट जन श्रद्धा प्राप्त की है उनका विशेपण इसी पोर इंगित कर रहा है । इतिहासकारों ने यह मान लिया है कि पार्श्वनाथ का प्रभाव और सम्मान न केवल उनके अनुयायी वर्ग में ही था, अपितु अन्य सम्प्रदायों और तापसों तक में भी उनका विशेष प्रभाव व सम्मान था । भगवान् महावीर के लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग 'समणे भगवन् महावीरे' भ. अवश्य कुछ विशिष्ट अर्थ-ध्वनि लिए हुए हैं । 'श्रमण' तो सभी तीर्थकर थे, फिर महावीर के लिए ही इस शब्द का विशेप प्रयोग क्यों किया गया ? यह प्रश्न अपने आप में एक महत्व रखता है । 'श्रमण' विशेपण स्पष्टतः यह संकेत देता है कि महावीर के जीवन में, महावीर के दर्शन में और महावीर की वाणी में श्रम की कुछ विशेप प्रतिष्ठा रही है। उन्होंने श्रम को, तप को, स्वावलंबन को विशेष महत्व दिया है, पुरुपार्थ, प्रयत्न और उद्यम की विशेष प्रतिष्ठा की है, उसी भाव को व्यक्त करने के लिए उनके लिए भगवान्' शब्द से पूर्व 'श्रमण' शब्द का प्रयोग किया गया है । श्रम और तप को एकरूपता : वैसे तो 'श्रमण' शब्द ही 'श्रम' का प्रतीक है जिसकी आध्यात्मिक व्याख्या 'तप' के रूप में की गई है । सात्विक-श्रम को-तपश्चर्या कहा गया है । जैनाचार्यो मे कहा है जो श्रम करता है, अर्थात् तपश्चर्या करता है', अथवा श्रम-तप के द्वारा शरीर को तपाता है। १. थाम्यन्तीतिश्रमणा : तपस्यन्तीत्यर्थ : दशवकालिक वृति ११३ २. श्राम्यति तपसा खिद्यत इति-सूत्र कृतांग वृत्ति १११६ - -
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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