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________________ 'समाजवादी अर्थ-व्यवस्था और महावीर स्थिति का निदान द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष के रूप में खोजा तो महावीर ने इस निदान को अपरिग्रहवाद के रूप में प्रकाशित किया जो मानव की अन्तरात्मा को परिमार्जित कर स्थायित्व का स्वरूप दिखाता है। अपरिग्रहवाद सामाजिक स्वामित्व का ही दूसरा नाम माना जाना चाहिये। . . ' व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति : . प्राचीन और अर्वाचीन-इन दोनों निदानों को दो अलग-अलग दृष्टियों से देखकर उनका एक समन्वित रूप ढाला जा सकता है। एक व्यक्ति से समाज की ओर बढ़ने का निर्देश है तो दूसरा समाज से व्यक्ति की ओर मुड़ने का प्रयत्न । व्यक्ति और समाज की शक्तियों का विभेद तथा सहयोग भी इसी दृष्टि से आंका जा सकता है। ... व्यक्ति संयमित, नियमित, अनुशासित एवं आत्म नियन्त्रित होगा तभी समाज सुगठित एव संघटित बना रह सकेगा क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति का चरित्र ही सामाजिक चरित्र का निर्माण करता है । किन्तु जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व है तब तक व्यक्ति को उद्दाम लालसानों पर वह आत्म-नियन्त्रण कर सके- इसकी सम्भावना भी बहुत धुंधली होती है । यही कारण है कि इस विन्दु पर सामाजिक शक्ति को प्रखर बनाने की आवश्यकता महसूस होती है. और यही रास्ता समाज से व्यक्ति की ओर आने का होता है। - व्यक्ति से समाज की ओर जाने की प्राचीन विचारधारा रही है तो अर्वाचीन विचारधारा समाज से व्यक्ति की ओर आने पर भी समान रूप से बल देती है। व्यक्ति के जीवन को मोड़ देने के लिए कई बार सामाजिक वातावरण भी प्रभाविक सिद्ध होता है, बल्कि आधुनिक समाजवादी अर्थ व्यवस्था में तो समाज-सत्ता के आधार पर ऐसे धरातल का निर्माण कर दिया जाता है जिस पर.व्यक्ति को व्यक्तिश: चलना सरल हो जाता है । एक व्यक्ति कांटों-पत्यरों वाली बीहड़ भूमि पर चले और दूसरे को चलने के लिये डामर की सड़क मिल जाय तो अवश्य ही दूसरा शक्ति और समय की वचत कर सकेगा । व्यक्ति की प्रगति के लिये डामर की सड़क बनाने का काम समाज का होना चाहिये तथा यही समाजवादी अर्थ व्यवस्था की बुनियाद है । समाजवादी अर्थ - व्यवस्था सामान्य रूप से सारे समाज में अर्थ-चिन्ता से मुक्त वातावरण, सभ्यता एवं संस्कृति के जरिये सब व्यक्तियों के लिये “समान रूप से समुन्नत धरातल बनाने का दायित्व लेती है। और यही समूह का एक व्यक्ति के प्रति कर्तव्य होना चाहिये। अपने-अपने ढंग से ये दोनों प्राचीन और अर्वाचीन विधियां समाजोपयोगी हैं तथा समन्वित होकर चले तो एक दूसरी की पूरक बन जाती हैं । इस रूप में ये दोनों विधियां 'मनुष्य की संचय वृत्ति पर व्यक्तिगत स्वेच्छा एवं सामाजिक मत के अनुसार नियंत्रण कर सकती हैं । संचय वृत्ति पर प्रतिबन्ध ही अपरिग्रहवाद के आचरण गत पक्ष को सबल बना सकेगा। सम्पत्ति-संचय : एक विषम समस्या : . . . मानव समाज में आज सभी प्रकार की विषमताओं के वीज.वोने वाला व्यक्तिगत
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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