SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १५ ) सिद्ध परमेष्ठी के मूलगुण । सिद्ध उन्हे कहते हैं, जो आठो कमका नाश करके संसारके बन्धनसे सदैवके लिए मुक्त हो गये हैं, अर्थात् जो फिर कभी संसारमे न आयेंगे। इनमे नीचे लिखे हुए ८ मूलगुण होते हैं । सोरठा । 1 समकित दरसन ज्ञान, अगुरुलेघू अवगाहना । सूच्छैम वीरजवान, निरार्बोध गुण सिद्धके ॥ इन गुणोंकी परिभाषा ( स्वरूप ) समझना इस पुस्तकके पढ़नेवाले विद्यार्थियोंकी शक्तिसे बाहर है, इसलिये केवल नाम मात्र दे दिये गए हैं । १ सम्यक्त्व, २ दर्शन, ३ ज्ञान, ४ अगुरुलघु, ५ अवगाहनत्व, ६ सूक्ष्मत्व, ७ अनन्तवीर्य, ८ अव्यावाधत्व | आचार्य परमेष्ठी के मूलगुण । आचार्य उन्हें कहते हैं, जिनमें नीचे लिखे हुए ३६ मूलगुण हाँ । ये मुनियोंके संघके अधिपति होते हैं, और उनको दीक्षा तथा प्रायश्चित्त वगैरह दंड देते हैं । द्वादशै तप दश धर्मजुत, पार्ले पंचाचार । षट् आवशियगुप्तिगुन, आचरज पद सार ॥ अर्थात् - तप १२, धर्म १०, आचार ५, आवश्यक ६, गुप्ति ३ | १ न हलका न भारी । २ एक एक आत्माके आकार में अनेक आत्माओं के आकारोंका रहना । ३ अतीन्द्रियगोचर । ४ बाधा रहित । ५ बारह । ६ छह ७ तीन गुप्ति । ८ आचार्य | २
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy