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________________ तीसरा भाग। याद करता है. परन्तु उसे याद नहीं होता। हममें मोहन के ज्ञानावरणी कर्मका उदय समझना चाहिये । किमीक पटनेमें विघ्न डालना, किमीकी पृस्तक फाड देना, छुपा देना. किमीको न बताना, अपने गुरु अथवा और किसी विद्वानको निन्दा करना, अपने बानका गर्व करना, विद्या पढनेमें आलस्य करना, अठा उपदेश देना वगैरह कामोंसे ज्ञानावग्णी कम बंधता है अर्थात ज्ञानका प्रकाश नहीं होता. किन्तु इनसे विपरीत करनेसे ज्ञानका प्रकाश होता है। दर्शनावग्णी कर्म उसे कहते है, जो आमाके दर्शन गुणको प्रकट न होने दे । जैसे-एक राजाका पहरेदार पहरंपर बैठा हुआ है, वह किसीको भी अन्दर जाकर राजाके दर्शन नहीं करने देता, मयको बाहरसे ही रोक देता है, इसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म किसीको दर्शन नहीं होने देता। जैसे - मोहन मदिरमें दर्शन करने के लिये गया था, परन्तु मन्दिरका ताला लगा पाया । इमसे समझना चाहिये कि मोहनके दर्शनावरणी कर्मका उदय है। किसीके देखनेमे विघ्न करना, स्वयं देखे हुए पदार्थको प्रकट न करना, अपने पासकी वस्तु दूसरोको न दिखाना, अपनी दृष्टिका गर्व करना, दिनमे सोना, दूसरेकी आंखें फोडना, मुनियोको देखकर ग्लानि करना और धर्मात्माको दोष लगाना ऐसे कर्मोंसे दर्शनावरण! कर्म बंधता है और इनके विपरीत | करनेसे आत्माका दर्शन गुण प्रकट होता है।
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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